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शारीरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
( ३१९ )
॥ ४८ ॥ और गमन करने स्थित होने बैठनेकी शक्ति नहीं रहती और विकलता उपजती हैं। अथवा मृत्यु होजाती है और धमनीस्थितमर्ममें वेध होजावे तो मूर्च्छित हुये मनुष्यके शब्दसहित और झागोंवाला और गरम रक्त झिरता है ।। ४९ ।। और शिरामर्मके वेध करणरूप निरंतर बहुतसा रक्त झिरता है पीछे तिस रक्त के क्षयसे तृषा, भ्रम, श्वास मूर्च्छा, हिचकी इन्होंकरके मृत्यु हो जाती है ॥ ५० ॥ संधिजमर्मके वेधमें शूक अर्थात् चावल जवआदिके तुषकरके आकीर्ण हुयेकी तरह विद्धदेश होजाता है और तिस मर्म अंकुर आने टापन और लंगडापन होजाता है, बल और चटाका नाश और अंगका शोष और संधियों में शोजा उपजता है ॥ ५१ ॥
नाभिशङ्काधिपापानहृच्छृंगाटकबस्तयः ॥ अष्टौ च मातृकाः
निम्नन्त्येकान्नविंशतिः ॥ ५२ ॥ सप्ताहः परमस्तेषांकालः कालस्य कर्षणे ॥ त्रयस्त्रिंशदपस्तम्भतलहुत्पार्श्व सन्धयः ॥ ५३ ॥ कटीतरुण सीमन्तस्तनमूलेन्द्रवस्तयः ॥ क्षित्रापालापवृहतीनितंबस्तनरोहिताः ॥ ५४॥ कालान्तरप्राणहरामासमासार्द्धजीविताः ॥
नाभी एक शंख दो अधिप एक गुद एक हृदय एक होगाटक चार वस्ति एक मातृका आठ ऐसे उन्नीस मर्म विद्धये तत्काल मनुष्यको मारते हैं ॥ ५२ ॥ अर्थात् इन्होंके विद्धहोने से मरने में सात दिनकी अवधि है और अपस्तंभ दो तलहृत् चार पार्श्वसंधि दो ॥ ९३ ॥ कटिकतरुण दो सीमंत पांच स्तनमूल दो इन्द्रवस्ति चार क्षिप्रं चार अपालाप दो बृहती दो नितंब दो स्तनरोहित दो ऐसे ये तैंतीस मर्म चिह्न होजायें तो ॥ २४ ॥ कालान्तर में प्राणको हरते हैं अर्थात् एक महीना पंद्रह दिनतक मनुष्य जीवता है |
उत्क्षेपो स्थपनी त्रीणि विशल्यप्नानि तत्र हि ॥ ५५ ॥ वायुमांसवसामजमस्तुलुंगानि शोषयन् ॥ शल्यापायेविनिर्गच्छवासात्कासाच्च हन्त्यसून् ॥ ५६ ॥ फणावपांगी विधुरौ नीले मन्ये कृकाटिके ॥ अंसांसफलकावर्तवि टपोर्वी कुकुन्दराः॥५७॥ सजानुलोहिताख्याऽऽणिकक्षाधृक्कूर्चकूर्पराः ॥ वैकल्यमिति चत्वारि चत्वारिंशच्च कुर्वते ॥ ५८ ॥ हरन्ति तान्यपि प्राणाकदाचिदभिघाततः ॥ अष्टौ कूर्चशिरोगुल्फमणिबन्धा
रुजाकराः ॥ ५९ ॥
और दो उत्क्षेप और एक स्थपनी ये तीन विशल्यन मर्म है तिन्होंमें ॥ ९५ ॥ बसा मज्जा माथाका स्नेह मांसआदि इन्हों को शोषित करताहुआ वायु शल्यके दूर होनेमें आप निकसता वायु
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