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(३२८)
अष्टाङ्गहृदयेआकाशआदि पंचमहाभूतोंकी अनेक प्रकारको पंचछाया होती हैं और निर्मल, कछुक नीली, स्नेहसे संयुक्त, प्रभाकी तरह, आकाशसे उपजी छाया होती है ॥ ४६ ॥ धूलीरूप अरुण और धूम्रवर्णवाली और भस्मके समान रूखी और कांतिसे रहित वायुसे उपजी छाया होती है और शुद्ध हुई और रक्तवर्णवाली और प्रकाशितकांतिबालो और देखना है प्यारा जिसको ऐसी अग्निसे उपजी छाया होती है ॥ ४७ ॥ शुरूप वैडूर्यमणके समान निर्मल और चिकनी और सुखको देनेवाली जलसे उपजी छाया होती है स्थिर और चिकनी, करडी, शुद्ध, श्यामरंगवाली, सफेदरंगवाली ऐसी पृथ्वीसे उपजी छाया होती है ॥ ४८ ॥
वायवी रोगमरणक्लेशायान्याः सुखोदयाः ॥ प्रभोक्ता तैजसी सर्वा सा तु सप्तविधा स्मृता ॥ ४९ ॥ रक्ता पीता सिता श्यामा हरिता पाण्डुरा सिता ॥ तासां याः स्युर्विकासिन्यः स्निग्धाश्च विमलाश्च याः॥५०॥ ताः शुभा मलिना • रूक्षाः संक्षिप्ताश्चासुखोदयाः॥ वर्णमाक्रामतिच्छायाप्रभाव
प्रकाशिनी ॥५१॥ आसन्ने लक्ष्यते छाया विकृष्टे भाप्रकाशते ॥ नाऽच्छायो नाऽप्रभः कश्चिद्विशेषाश्चिह्नयन्ति तु ॥५२॥ नृणां शुभाशुभोत्पत्तिं कालेच्छायासमाश्रयाः ॥ वायुसे उपजी छाया सेग, मरण, क्लेशके अर्थ होती है और शेष रही चार छाया सुखको देती हैं, सात प्रकारवाली अग्निसे उपजी प्रभा कही है ॥ ४९ ॥ रक्त, पीली, सफेद, श्याम, हरित, पांडुरा, काली इन सातोंमें जो प्रकाश करनेवाली और चिकिनी और निर्मल रहै ॥ ५० ॥ सो प्रभा शुभ है और मलीन, रूखी, संक्षिप्तहुई प्रभा अमंगलको देती है छाया वर्णको तिरस्कार करके स्थित होती है, और प्रभा वर्णको प्रकाशित करती है ।। ५१ ॥ निकटमें छाया लक्षित होती है
और दूरदेशमें प्रभा प्रकाशित होती है, कोईभी पुरुष छायासे तथा प्रभासे रहित नहीं है किंतु ॥ ५२ ॥ समयमें छायाकरके आश्रित हुये विशेष मनुष्यों के अर्थ शुभ और अशुभउत्पत्तिको करते हैं। निकषन्निव यः पादौ च्युतांसः परिसर्पति ॥ ५३ ॥ हीयते बलतः शश्वद्योऽन्नमश्नन्हितं बहु ॥ योऽल्पाशी बहुविएमूत्रो बह्वाशी चाल्पमूत्रविट् ॥ ५४ ॥ योऽल्पाशी वा कफेनात्तों दर्घि श्वसिति चेष्टते ॥ दीर्घमुच्छस्य यो ह्रस्वं निःश्वस्य परिताम्यति ॥ ५५ ॥ ह्रस्वञ्च यः प्रश्वसिति व्याविद्धं स्पन्दते भृशम् ॥ शिरो विक्षिपते कृच्छ्राद्योऽञ्चयित्वा प्रपा
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