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शारीरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(२८५ )
मदिराको नहीं पीनेवाली स्त्री पीपल, पीपलामूल, चव्य, चीता, सूंठ इन्होंके कल्क में साधित करी पेयाको पीवै अथवा बृहत्पंचमूलके काथमें साधितकरी पेयाको पीवै अथवा तिल उद्दालकना - मक व्रीहिचावल इन्होंमें सिद्ध करी पेयाको पीवै ॥ ११ ॥
मासतुल्यदिनान्येवं पेयादिः पतिते क्रमः ॥ लघुरस्नेहलवणो दीपनीययुतो हितः ॥ १२ ॥
महीनोंके प्रमाणसे पतित हुये गर्भमें उसके तुल्यदिनोंतक हलका और स्नेह तथा नमक से वर्जित और मिरच चीताआदि से संयुक्त पेयाआदिका क्रम हितहै ॥ १२ ॥
दोषधातुपरिक्लेदशोषार्थं विधिरित्ययम् ॥
स्नेहान्नवस्तयश्चोर्द्ध बल्यजीवनदीपनाः ॥ १३ ॥
पित्त कफ धातु इन्होंके परिक्लेदको शोषणके अर्थ यह विधि हितहै इसके उपरांत चार प्रकार का स्नेह और स्निग्ध अन्न और बलके अर्थ हित और पराक्रमको बढानेवाली और अग्निको जगाने . वाली बस्तियां हित हैं ॥ १३ ॥
सञ्जातसारे महति गर्भे योनिपरिस्रवात् ॥ वृद्धिमप्राप्नुवन्गर्भः कोष्ठे तिष्ठति सस्फुरः ॥ १४ ॥
वृद्धिको प्राप्त हुये गर्भमें योनिके झिरनेसे वृद्धिको नहीं प्राप्त होता हुआ और फुरता हुआ गर्भ कोष्टमें स्थित रहता है ॥ १४ ॥
उपविष्टकमाहुस्तं वर्द्धते तेन नोदरम् ॥
शोको पवासरुक्षाद्यैरथवा योन्यतिस्रवात् ॥ १५ ॥
तिसको मुनिजन उपविष्टकगर्भ कहते हैं तिसकरके पेट नहीं बढता है और सौ उपवास रूखापन आदिकरके अथवा योनिके अत्यंत झिरनेसे ॥ १५ ॥
वाते क्रुद्धे कृशः शुष्येद्गर्भो नागोदरं तु तत् ॥ उदरं वृद्धमप्यत्र हीयते स्फुरणं चिरात् ॥ १६ ॥
क्रुद्ध हुये वातमें कृश हुआ गर्भ सूख जाता है तिसको नागोदर कहते हैं; यहां बढा हुआ पेटभी हानिको प्राप्त होता है और चिरकालसे गर्भ फुरता है ॥ १६ ॥ तयोबृंहणवातघ्नमधुरद्रव्यसंस्कृतैः ॥
घृतक्षीररसैस्तृतिरामगर्भाश्च खादयेत् ॥ १७ ॥
उपविष्टक और नागोदरगर्भमें बृंहण, वातनाशक, मधुर द्रव्योंमें सिद्ध किये करके तृप्ति करनी और कच्चे गर्भमें बृंहणादि पदार्थोंको बनाकर इसप्रकार न हो किन्तु पुष्टिहो ॥ १७ ॥
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घृत, दूध, रस
खवावे जिससे हानि
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