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( ३१०)
अष्टाङ्गहृदयेऔर दो दो दोषोंके सब गुण मालूम होवें तो दो दोषोंकी प्रकृति जाननी और तीन दोषोंके गुण मिलें तो तीन दोषोंकी प्रकृति जाननी परंतु शौच, आस्तिकपना आदि गुणोंकरके प्रकृतिको कहै इन दो दो लक्षणोंसे विलक्षण प्रकृति होतीहै अर्थात् यह दोनों मिलकर मिले हुए लक्षण प्रगट करते हैं ॥ १०४ ॥
वयस्त्वाषोडशाहालं तत्र धात्विन्द्रियोजसाम् ॥
वृद्धिरासप्ततेमध्यं तत्रावृद्धिः परं क्षयः॥ १०५॥ सोलहवर्षतक बालकअवस्था होती है तिसमें धातु, इंद्रिय, बल इन्होंकी वृद्धि होती है और सत्तर वर्षतक मध्य अवस्था है तहां वृद्धि नहीं और सत्तर वर्षसे उपरांत वृद्ध अवस्था है तह धातु, वीर्य, बलका क्षय होजाता है ॥ १०५॥
खं स्खं हस्तत्रयं सार्द्ध वपुः पात्रं सुखायुषोः॥ नच यद्युक्त मुद्रिक्तैरष्टाभिनिदितैनिजैः॥ १०६ ॥ अरोमशासितस्थलदी र्घत्वैः सविपर्ययैः ॥ जो अपने साढेतीन हाथोंसे प्रमाणित शरीर होता है वह सुख और आयुका पात्र होता है इस प्रकारका होकरभी जो शरीर निंदित तथा स्वाभाविक आठसे आट उद्रिक धात्वादिसे युक्त हो वह श्रेष्ठ नहीं।। १०६ ॥ रोमरहित शरीर सुख आयुका पात्र नहीं है और अतिरोमोबाला शरीर सुख आयुका पात्र नहीं है और सफेदपनेसे रहित शरीर सुख आयुक्ता पात्र नहीं है, और अति सफेद और सफेदपनेसे रहित शरीर सुख आयुका पात्र नहीं है, ऐसेही स्थूल और दीव शरीरभी जानने ।।
सुस्निग्धा मृदवः सूक्ष्मा नैकमूलाः स्थिराः कचाः ॥ १०७ ॥ ललाटमुन्नतं श्लिष्टशकमद्धेन्दुसन्निभम् ॥ कौँ नीचोबतौ.पश्चान्महान्तौ श्लिष्टमांसलौ ॥ १०८ ॥ नेत्रे व्यक्ता सितसिते सुबद्धे घनपक्ष्मणी ॥ उन्नताया महोच्छासा पी नर्जुर्नासिका समा॥ १०९ ॥ ओष्ठौ रक्तावनुवृत्ती महल्यै नोल्बणे हनु ॥ महदास्यं घना दन्ताः स्निग्धाः श्लष्णाः सिताः समाः॥ ११० ॥ जिह्वा रक्तायता तन्वी मांसलं चिबुकं महत् ॥ ग्रीवा ह्रस्वा घना वृत्ता स्कन्धावुन्नतपीवरौ ॥ १११॥ उदरं दक्षिणावर्त्तगूढनाभि समुन्नतम् ॥ त नुरक्तोन्नतनखं स्निग्धमाताम्रमांसलम् ॥ ११२ ॥ दीर्घा च्छिद्राङ्गुलि महत्पाणिपादं प्रतिष्ठितम् ॥ गृढवंशं बृहत्यू
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