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अष्टाङ्गहृदये- . ॥ ११७ ॥ इन सब सारोंकरके संयुक्त और गौरवसे संयुक्त और सब आरंभोंमें आशावाला सहनेवाला और सुंदरबुद्धिवाला स्थिर मनुष्य होता है ॥ ११८ ॥ .
अनुत्सेकमदैन्यं च सुखं दुःखं च सेवते ॥ सत्त्ववांस्तप्यमानस्तु राजसो नैव तामसः ॥ ११९॥ दानशीलदयासत्यब्रह्म- .
चर्यकृतज्ञताः ॥ रसायनानि मैत्री च पुण्यायुर्वृद्धिकृद्गुणः१२० । ___ सत्वगुणवाला मनुष्य अभिमानको त्यागके लुखको सेवता है और कृपणपनको त्यागके दुःखको सेवता है और रजोगुणवाला मनुष्य अहंकारकरके आक्रांतमनवाला और तप्यमान होताहुआ दुःखको सेवता है और तमोगुणी मनुष्य मूढरनेसे न सुखको सेवता है न दुःखको सेवता है ॥ ११९ ॥ दान, शील, दया, सत्य, ब्रह्मचर्य, कृतज्ञता, सब प्रकार के रसायन, मित्रता वे सब पुण्य और आयुको बढाते हैं ।। १२० ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिता-भाषाटीकायां
शारीरस्थादे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
चतुर्थोऽध्यायः।
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अथातो मर्मविभागं शारीरं व्याख्यास्यामः। इसके अनंतर मर्मविभाग शारीरनामक अध्यायका वर्णन करेंगे । सप्तोत्तरं मर्मशतं तेषामेकादशादिशेत् ॥ पृथक्सक्थ्नो . स्तथा बाह्वोस्त्रीणि कोष्टे नवोरसि ॥१॥ पृष्ठे चतुर्दशो
वं तु जत्रोस्त्रिंशच्च सप्त च ॥ एकसो सात मर्म हैं, तिन्होंमेंसे दोनों सक्थियोंमें और दोनों बाहुओंमें चवालीस मर्म जानने और कोष्ठमें तीन मर्म हैं और छातीमें नव मर्म हैं॥ १ ॥ पृष्ट भागमें चौदह मर्म हैं जोतोंके ऊपर सैंतीस मर्म हैं ।
मध्ये पादतलस्याहुरभितो मध्यमाङ्गुलिम् ॥ २ तलह नाम रुजया तत्र विद्धस्य पञ्चता ॥ अङ्गुष्ठागुलिमध्यस्थं क्षिप्रमाक्षेपमारणम् ॥ ३॥ तस्योर्ध्वं व्यगुले कृर्चः पादभ्रमणकम्पकृत्॥गुल्फसन्धेरधः कूर्चशिरः शोफरुजाकरम् ॥ ४॥ जंघाचरणयोः सन्धौ गुल्फ़ोरुक्स्तम्भमान्यकृत्।।जंघान्तरे विन्द्रबस्तिारयत्यसृजःक्षयात् ॥५॥
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