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( ३०६)
अष्टाङ्गहृदयेअवस्थासे उपजा और ऋतुसे उपजा कालज बल होता है, क्रीडा और भोजनसे उपजा और बलको करनेवाले योगोंसे उपजा युक्तिज बल होता है ॥ ८ ॥
देशोऽल्पवारिद्रुनगो जांगलः स्वल्परोगदः॥
आनूपो विपरीतोऽस्मात्समः साधारणः स्मृतः ॥ ७९ ॥ अल्प पानी, अल्प वृक्ष, अल्प पर्वत इन्होंसे युक्त जो देश हो वह जांगल कहाता है यह स्वल्प रोगोंको उपजाता है और इससे विपरीतलक्षणोंवाला आनूपदेश होता है और जो दोनोंके समान हो वह साधारण देश होताहै ॥ ७९ ॥
मजमेदोवसामूत्रपित्तश्लेष्मशकृन्त्यसृक् ॥ ८॥ मजा, मेद, वसा, मूत्र, पित्त, कफ, विष्ठा, रक्त ।। ८० ॥
रसो जलं च देहेऽस्मिन्नेकैकाञ्जलिवद्धितम् ।।
पृथक स्वप्रसतं प्रोक्तमोजोमस्तिष्करेतसाम् ॥ ८१॥ स. पानी ये सब इस देहमें एक एक अंजली वर्द्धित अर्थात् आठ आठ तोलोंकी वृद्धिसे स्थित हैं माथेका स्नेह और वीर्य बल ये सब पृथक् पृथक अपने अपने शरीरकी प्रसूत अर्थात् एक हाथकी परसेमें आसके इतने होते हैं मज्जा एक अंजली मेद दो इसी प्रकार सब जानने ॥ ८१ ॥
द्वावञ्जली तु स्तन्यस्य चत्वारो रजसः स्त्रियाः।।
समधातोरिदं मानं विद्याद्वृद्धिक्षयावतः ॥ ८२ ॥ स्त्रीके शरीरमें दूव १६ तोले होता है और आर्तव ३२ तोले होता है यह परिमाण समधातुप्रकृतिवाले मनुष्यके जानना इसीवास्ते यथायोन्य मज्जाआदिकोंका वृद्धिक्षय जानना ।। ८२ ॥
शुक्रासरगर्भिणीभोज्यचेष्टागर्भाशयतुषु ।।
यः स्यादोषोऽधिकस्तेन प्रकृतिः सप्तधोदिता ॥ ८३ ॥ वीर्य, आर्तव, गर्भिणीका भोजन, चेष्टा, गर्भाशय, ऋतु इन्होंमें जो वातआदि दोष अधिक हों तिसकरके सातप्रकारकी प्रकृति होती है ॥ ८३॥
विभुत्वादाशुकारित्वाइलित्वादन्यकोपनात् ५ स्वातंत्र्या बहुरोगत्वादोषाणां प्रबलोऽनिलः ॥ ८४॥ प्रायोऽत एव पवनाध्युषिता मनुष्या दोषात्मकाः स्फुटितधूसरकेशगात्राः॥ शीतद्विषश्चलधृतिस्मृतिवुद्धिचेष्टासौहार्ददृष्टिगतयोऽतिबहुप्रलापाः ॥८५॥ अल्पपित्तबलजीवितनिद्राः सन्नसक्तचलजर्जरवाचः॥ नास्तिका बहुभुजः सविलासा गीतहासमग
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