________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शारीरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
गुडं किण्वं सलवणं तथान्तः पूरयेन्मुहुः ॥ घृतेन कल्कीकृतया शाल्मल्यतसिपिच्छया ॥ २५ ॥
गुड, मदिरासे पचाद्दुआ द्रव्य, नमक इन्होंसे बारंबार योनिको पूरित करे और सेमलका गूंद, अलसीका निर्यास इन्होंका वृतमें कल्क बनाय योनिको बारंबार पूरित करें || २५ ॥ मन्त्रैर्योग्यैर्जरायुक्तैर्मूढगर्भो न चेत्पतेत् ॥
( २८७ )
अथापृच्छ्येश्वरं वैद्यो यत्नेनाशु तमाहरेत् ॥
२६ ॥
जो योग्य मंत्रोंकरके अथवा जेर के निकासनेमें कहेहुये योगोंकरके मूढगर्भ नहीं निकसे तो पीछे कुशल वैद्य राजाकी आज्ञा लेकर तिस मूढगर्भको यत्नसे शीघ्रही निकासै ॥ २६ ॥ हस्तमभ्यज्य योनिञ्च साज्यशाल्मलिपिच्छया ॥
For Private and Personal Use Only
हस्तेन शक्यं तेनैव गात्रं च विषमं स्थितम् ॥ २७ ॥
अर्थात् घृतसंयुक्त मलके निर्यासकरके हाथको चिकना बना और योनिको चिकनी बना हाथकरके निकसने योग्यको हाथहीकर के निकास और जो गर्भका अंग विषमरूप स्थित होवेतो ॥२७॥ आच्छन्नोत्पीडसंपीडविक्षेपोत्क्षेपणादिभिः ॥
अनुलोम्य समाकर्षेद्योनिं प्रत्यार्जमागतम् ॥ २८ ॥
दीर्घताकरके स्थापन तथा ऊपरको पीडन तथा चारों तर्फसे पीडन तथा विशेष प्रेरण तथा उत्कर्षकरके उत्क्षेपण आदि कर्मोकर के स्पष्ट बना योनिसे खँचे ॥ २८ ॥ हस्तपादशिरोभिर्यो योनिं भुग्नः प्रपद्यते ॥
पादेन योनिमेकेन भुग्नोऽन्येन गुदं च यः ॥ २९॥
हाथ, पैर, शिर इन्होंकरके कुटिल हुआ गर्भ योनिपै प्राप्त होवे अथवा एक पैरकर के योनिको प्राप्त होवे और दूसरे पैरकर के गुदाको प्राप्त होवे ॥ २९ ॥
विष्कम्भौ नामतो मूढौ शस्त्रदारणमर्हतः ॥
मण्डलाङ्गुलिशस्त्राभ्यां तत्र कर्म प्रशस्यते ॥ ३० ॥
ये दोनों विष्कंभनामवाले मूढ गर्भ हैं इन्होंको शस्त्रसे काटकै निकासना उचित है इन्होंमें मंडलाप्रशस्त्र और अंगुलीश करके कर्म करना श्रेष्ठ है ॥ ३० ॥
वृद्धिपत्रं हि तीक्ष्णाग्रं न योनाववचारयेत् ॥
पूर्वं शिरःकपालानि दारयित्वा विशोधयेत् ॥ ३१ ॥ तीक्ष्णअग्रभागवाले वृद्धिपत्र शस्त्रको योनिमें प्राप्त नहीं करै, और पहले शिर के कपालों को शस्त्रकरके काटकर निकालै ॥ ३१ ॥
1