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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
ऊष्मणा प्रायशः शल्यं देहजेन विलीयते ॥ मृद्वेणुदारुशृङ्गास्थिदन्तवालोपलानि च ॥ ४३ ॥
विशेषतासे देहकी गरमाई करके गल जाते हैं और मट्टी, बाँस, काठ, शींग, हड्डी, दंत, बाल, पत्थर ॥ ४३ ॥
शल्यानि न विशीर्यन्ते शरीरे मृन्मयानि वा ॥ विषाणवेण्वयस्तालदारुशल्यं चिरादपि ४४ ॥
आदिके शल्य और मट्टी के विकारोंके शल्य शरीरमें नहीं विलीन होते हैं और शींग बांस, लोहा ताड काट, इन्होंके शल्य चिरकालसे भी ।। ४४ ।
प्रायो निर्भुज्यते तद्धि पचत्याशु पलासृजी ॥
शल्ये मांसावगाढे च स देशो न विदह्यते ॥ ४५ ॥
विशेषकरके न तो पृथक् होते हैं और मांस तथा रक्तको शीघ्र पकाते हैं और मांसके भीतर स्थित हुये शल्य में वह देश नहीं पकता है ॥ ४५ ॥
ततस्तं मर्दनस्वेदशुद्धिकर्षणबृंहणः ॥
( २४५ )
तीक्ष्णोपनाहपानान्नघनशस्त्रपदाङ्कनैः ॥ ४६ ॥
पछेि तिस देशको मर्दन, स्वेदन, शुद्धि, कर्षण, बृंहण, तीक्ष्णरूप उपनाह, पान, अन्न घन रूप शस्त्र पदों के चिह्न करके ॥ ४६ ॥
पाचयित्वा हरेच्छल्यं पाटनैषणभेदनैः ॥
शल्यप्रदेशयन्त्राणामवेक्ष्य बहुरूपताम् ॥
तैस्तैरुपायैर्मतिमान् शल्यं विद्यात्तथा हरेत् ॥ ४७ ॥
काके पीछे पाटन, एषण, भेदन यंत्रोंकर के शल्यको निकास और शल्य के प्रदेश तथा यंत्रों के बहुतसों रूपोंको देखकर बुद्धिमान् वैद्य तिन तिन उपायों करके शल्यको जानके पश्चात् निकासता रहै ॥ ४७ ॥ वेरीनिवासिवैद्यपण्डितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
इति
सूत्रस्थाने अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥
एकोनत्रिंशोऽध्यायः ।
अथातः शस्त्रकर्मविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर शस्त्रकर्मविधिनामक अध्यायको व्याख्यान करेंगे । व्रणः सञ्जायते प्रायः पाकात् श्वयथुपूर्वकात् ॥ तमेवोपचरेत्तस्माद्रक्षन् पार्क प्रयत्नतः ॥ १ ॥
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