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शरीरस्थानं भाषटीकासमेतम् ।
(२७७)
और कनेर के पत्तों के कल्क में सिद्ध किये तेलकी मालिसकरके पीछे परवल, नींब, मजीठ, मोचरसके रसोंसे मर्दित करे फिर ॥ ६३ ॥
दावमधुकतोयेन मृजां च परिशीलयेत् ॥ ओजोऽष्टमे सञ्चरति मातापुत्रौ मुहुः क्रमात् ॥ ६४ ॥
दारूहल्दी और मुलहटी के रसकरके सेचित करे और स्नानआदि शुद्धिका अभ्यास करे और आठवें महीनेमें माता और गर्भको बारंबार क्रमसे बल संचरित करता है ॥ ६४ ॥ तेन तौ म्लानमुदितौ तत्र जातो न जीवति ॥ शिशुरोजोऽनवस्थानान्नारी संशयिता भवेत् ॥ ६५ ॥
तिस बलके संचारित करके परिश्रमसे आनंदित हुये माता और गर्भ रहते हैं तिस आठवें महीने में उत्पन्न हुआ बालक नहीं जीवता है क्योंकि बलकी अनवस्थिति से और संशय से संयुक्त नारी होजाती है कारण कि उस समय ओज कभी बालक और कभी मातामें प्रवेश करता है; जब बालकमें आता है तब वह प्रसन्न होता है जब मातामें आता है तब वह प्रसन्न होती है ऐसे काल में ,उत्पन्न हुआ बालक नहीं जविता और जो उत्पन्न होनेके समय वह बल बालकमें होतो कदाचित् जीवता भी है ॥ ६५ ॥
क्षीरपेया च पेयात्र सघृतान्वासनं घृतम् ॥
मधुरैः साधितं शुद्ध्यै पुराणशकृतस्तथा ॥ ६६ ॥
इस आठवें महीनेमें घृतसे संयुक्त करी और दूधकरके संस्कृत करी पेयाको पीना उचित है और मधुर औषधोंकरके साधित किये घृतसे अन्वासन बस्ती करे और पुराणा विष्ठाकी शुद्धिके अर्थ ६६ शुष्कमूलककोलाम्लकषायेण प्रशस्यते ॥
शताह्रा कल्कितोवस्तिः सतैलघृतसैन्धवः ॥ ६७ ॥
सूखीमूली, बेर, अमली इन्होंके कषायकरके तथा शतावरीके कल्क करके तथा तेल, घृत, सेंधानमक इन्होंसे संयुक्त निरूह बस्तिको देना उचित हैं ॥ ६७ ॥
तस्मिंस्त्वेकाहयातेऽपि कालः सूतेरतः परम् ॥
वर्षाद्विकारकारी स्यात्कुक्षौ वातेन धारितः ॥ ६८ ॥
आठवें महीनेके एकदिन व्यतीत हुए पश्चात् और बारहवें महीने के अंततक बालकके जन्मका समय है और बारहवें महीनेसे उपरांत कुक्षिमें वायुकरके साधित हुआ गर्भ विकारको करनेवाला होता है ॥ ६८ ॥
शस्तश्च नवमे मासि स्निग्धो मांसरसौदनः ॥ बहुस्नेहा यवागूर्वा पूर्वोक्तं चानुवासनम् ॥ ६९ ॥
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