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शारीरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(२७५ )
इस गर्भवती स्त्रीके रोगोंको कोमल और सुखको देनेवाले और तीक्ष्णपनेसे रहित औषधोंकर के दूर करै शर्करादि उत्कृष्ट शक्तिवाली और काली मिरच अतीक्ष्ण हैं और दूसरे महीने में तिस कलीलासे घन अथवा पेशी अथवा अर्बुदसा गर्भ होजाता है ॥ ५१
पुंस्त्रीक्वाः क्रमात्तेभ्यस्तत्र व्यक्तस्य लक्षणम् ॥ क्षामता गरिमा कुक्षौ मूर्च्छा च्छर्दिररोचकः ॥ ५२ ॥
पीछे तिन घनआदियोंसे क्रमकरके पुरुष, स्त्री, हीजडा ऐसा गर्भ होजाता है तहां प्रकट हुये गर्भके लक्षण कहे जाते हैं; कृशपना, कोख में अत्यंत भारीपन, मूर्च्छा, छर्दि, अरुचि, ॥ ५२ ॥ जृम्भा प्रसेकः सदनं रोमराज्याः प्रकाशनम् ॥ अम्लेष्टता स्तनौ पीनौ सस्तन्यौ कृष्णचूचुकौ ॥ ५३ ॥
जंभाई, प्रसेक, शिथिलता, रोमोंकी पंक्तियोंका प्रकाश, अम्लरसमें इच्छाका होना और पुष्ट नथा दूधसे संयुक्त और चूंचियोंका अप्रभाग कालापन इन्होंसे संयुक्त दोनों स्तनाग्रका होजाना ॥ ५३ ॥
पादशोफो विदाहोऽन्ये श्रद्धाश्च विविधात्मिकाः ॥
मातृजं ह्यस्य हृदयं मातुश्च हृदयेन तत् ॥ ५४ ॥
पैरोंप शोजाका होना और अन्यत्रैद्योंके मतमें देहमें दाह और अनेक प्रकारकी श्रद्धा ये सब उपजै तब प्रकटगर्भके लक्षण जानो और जिस्मे इस गर्भका हृदय अर्थात् बुद्धिका अधिष्ठान मातृ होता है और वह हृदय माता के हृदय के साथ ॥ ५४ ॥
सम्बद्धं तेन गर्भिण्या नेष्टं श्रद्धाविधारणम् ॥ देयमप्यहितं तस्यै हितोपहितमल्पकम् ॥ ५५ ॥
बँधाहुआ है तिस्से गर्भवाली स्त्रीकी अभिलाषाको नहीं पूरणकरना बुरा है और हितकरके उपहित और अल्परूप अपथ्यपदार्थको भी गर्भवती स्त्री चाहै तो निश्चय देवै ॥ ५५ ॥
श्रद्धाविघाताद्गर्भस्य विकृतियुतिरेव वा ॥
व्यक्तीभवति मांसेऽस्य तृतीये गात्रपञ्चकम् ॥ ५६ ॥
क्योंकि गर्भवतीकी अभिलाषा के विघातसे गर्भके विकार अथवा झिरना उपजता है और इस गर्भके तीसरे महीने में पांच अङ्ग उपजते है ॥ ५६ ॥
मूर्धा सक्थिनी बाहू सर्वसूक्ष्माङ्गजन्म च ॥ सममेव हि मूर्द्धाद्यैर्ज्ञानं च सुखदुःखयोः ॥ ५७ ॥
शिर, दोनों सक्थि, दोनों बाहू, सब सूक्ष्मअंग और शिर आदि के साथही सुख और दुःखका ज्ञान ये उपजते हैं ॥ ५७ ॥
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