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(२६२)
अष्टाङ्गहृदयेयह खार सबतर्फसे गमन करता हुआ शस्त्रसाध्य दोषोंको जडसे काटता है. गईहुई पीडावाले मनुष्यके दाहआदि कर्मको करके आपही शांत होजाता है ॥ २६ ॥
क्षारसाध्ये गदे छिन्ने लिखिते स्रावितेऽथवा ॥
क्षारं शलाकया दत्त्वा प्लोतमावृतदेहया ॥ २७ ॥ क्षारकरके साध्यरूप बवासीरआदिरोगको छिन्न लिखित स्रावित करके पीछे रूईके फोहेकरके लपेटीहुई शलाकासे खारको लगाकर ॥ २७ ॥
मात्राशतमुपेक्षेत तत्रार्श:स्वावृताननम् ॥
हस्तेन यन्त्रं कुर्वीत वर्मरोगेषु वर्मनी ॥ २८ ॥ सौ. १०० मात्रा कालतक स्थितरहै, बवासीररोगमें हाथकरके आच्छादित मुखवाले यंत्रको नियुक्त करै, और वर्त्मगतरोगोंमें नेत्रके दोनों पलकोंके ॥ २८ ॥
निर्भुज्य पिचुनाच्छाद्य कृष्णभागं विनिक्षिपेत् ॥
पद्मपत्रतनुः क्षारलेपो प्राणार्बुदेषु च ॥ २९ ॥ खोलके पछि रूईके फोहेसे कृष्णभाग अर्थात् नेत्रके तारेको आच्छादित कर खारको लगावे कमलके पत्तेके मुटाई जितना खारका लेप करै, नासिकाके अर्बुदआदिरोगोंमें ॥ २९ ॥
प्रत्यादित्यं निषण्णस्य समुन्नम्याग्रनासिकाम्॥
मात्रा विधार्यः पञ्चाशत्तद्वदसि कर्णजे ॥ ३० ॥ सूर्यके सन्मुख स्थितहुये मनुष्यको नासिकाके अग्रभागको उन्नमित कर पचास ५०मात्राकालतक खारको धारण करावै और कानमें उत्पन्नहुये अर्शमेंभी कमलके पत्तेके समान सूक्ष्म खारका लेप पचाश ५० मात्राकालतक धारण करावै ॥ ३० ॥
क्षारं प्रमाजनेनानु परिमृज्यावगम्य च ॥
सुदग्धं घृतमध्वक्तं तत्पयोमस्तुकाञ्जिकैः ॥ ३१ ॥ पछि वस्त्र आदिकरके खारको पोंछ और खारके स्थानको अच्छीतरह दग्धहुआ जान वृत और शहदका लेप करा पीछे दूध, दहीका पानी, कांजी ॥ ३१ ॥
निर्वापयेत्ततः साज्यैः स्वादुशीतैः प्रदेहयेत् ॥
अभिष्यन्दीनि भोज्यानि भोज्यानि क्लेदनाय च ॥ ३२ ॥ ये निर्वापित करै मधुर और शीतल औषधोंमें घृत मिलाके लेप कराव और क्लेदन करनेके अर्थ कफकारी पदार्थोका पान और भोजन करना योग्य है ॥ ३२ ॥
यदि च स्थिरमूलत्वारक्षारदग्धं नशीर्यते ॥ धान्याम्लबीजयष्ट्याह्वतिलैरालेपयत्ततः ३३ ॥
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