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शारीरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (२६९) धातकीपुष्पखदिरदाडिमार्जुनसाधितम्॥
पाययेत्सर्पिरथ वा विपक्कमसनादिभिः॥ १३ ॥ धवके फूल, खैर, अनार, अर्जुनवृक्ष, अथवा असनादि गणकी औषधोंमें विपक्क किये घृतको पान करावै ॥ १३ ॥
पलाशभस्माश्मभिदा ग्रन्थ्याभे ध्यरेतसि ॥
परूषकवटादिभ्यां क्षीणे शुक्रकरी क्रिया ॥१४॥ ग्रंथिरूप वीर्यमें ढाककी भस्म और पाषाणभेदमें सिद्ध किये घृतको पान करावै और रादरूप . वीर्यमें फालसा और बड आदि औषधोंके गणमें पक किये घृतको पान करावै और क्षीणरूप वीर्यमें वीर्यको बढानेवाली क्रिया करनी ॥ १४ ॥
स्निग्धं वान्तं विरिक्तं च निरूढमनुवासितम् ॥
योजयेच्छुक्रदोषार्त सम्यगुत्तरबस्तिभिः ॥१५॥ दूषित वीर्यमें स्निग्ध स्नेहन वमन विरेचन निरूहण अनुवासनकरके मनुष्यको उत्तर बस्तीसे योजित करै ॥ १५ ॥
संशुद्धो विट्प्रभे सर्पिर्हिगुसेव्यादिसाधितम्॥
पिबेगुन्थ्यातवे पाठाव्योषवृक्षकजं जलम् ॥ १६ ॥ विष्ठाके समान कांतिवाले वीर्यमें प्रथम वमन विरेचन आदिकरके शुद्ध हुआ रोगी हींग, खस, वीता, मालकांगनी, मजीठ, कमलकी नाल आदि औषधोंमें सिद्ध किये घृतको पीवै और ग्रंथिसंज्ञक आर्तव रक्तमें पाठा, सूंठ, मिरच, पीपल, कूडा इन्होंसे उपजे रसको या काथको पीवे ॥ १६ ॥
पेयं कुणपपूयाने चन्दनं वक्ष्यते तु यत् ॥
गुह्यरोगे च तत्सर्वं कार्यं सोत्तरबस्तिकम् ॥१७॥ मुरदेके समान गंधवाले आर्तवमें और रादरूप आर्तवमें चंदनको पीवै और जो गुदाके रोगमें उत्तर बस्ति कर्मको कहेंगे वहभी करना योग्य है ।। १७॥
शुक्रं शुक्लं गुरु स्निग्धं मधुरं बहुलं बहु ॥
घृतंमाक्षिकतैलाभं सद्गर्भायार्तवं पुनः ॥ १८ ॥ सपेद और भारी और चिकना और मधुर और पीडीभूत और बहुतसा और घृत तथा शहदके समान आकृतिवाला ऐसा वीर्य सुंदर गर्भके अर्थ होता है फिर आर्तवमी ॥ १८ ॥
लाक्षारसशशास्त्राभं धौतं यच्च विरज्यते ॥ शुद्धशुक्रार्तवं स्वच्छं संरक्तं मिथुनं मिथः ॥ १९ ॥ ..
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