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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(२६१) स्थाप्योऽयं मध्यमः क्षारो न तु पिष्ट्वा क्षिपेन्मृदौ निर्वाप्यापनयेत्तीक्ष्णे पूर्ववत्प्रतिवापनम् ॥ २०॥ स्थापित करना योग्य है ऐसे मध्यम खार बनता है और कोमल खारके अर्थ पूर्वोक्त द्रव्योंको तिस खार संबंधी पदार्थमें निकास लेबै, अर्थात् पीसके मिलावे नहीं और तीक्ष्ण खारके अर्थ पहिलेकी तरह पीसके इन द्रव्योंको मिलावै ॥ २० ॥
तथा लाङ्गलिकादन्तिचित्रकातिविषावचाः ॥
स्वर्जिकाकनकाक्षीरिहिंगुपूतीकपल्लवाः॥२१॥ कलहारी, जमालगोटाकी जड, चीता, अतीस, वच, साजी, चोष, हींग, करंजुआ, पल्लववृक्ष ॥ २१ ॥
तालपत्री विडञ्चेति सप्तरात्रात्परन्तु सः॥
योज्यस्तीक्ष्णोऽनिलश्लेष्ममेदोजेष्वर्बुदादिषु ॥ २२ ॥ मुशली, मनीपारी नमक इन सबोंको तीक्ष्ण खारमें मिलावै और सात रात्रिसे उपरांत इस खारको वात कफ मेद इन्होंसे उपजे अर्बुद आदि रोगोंमें प्रयुक्तकरै ।। २२ ।।
मध्येष्वेव च मध्योऽन्यः पित्तास्रगुदजन्मसु ॥
वलार्थं क्षीणपानीये क्षाराम्बु पुनरावपेत् ॥ २३॥ वात, कफ, मेद इन्होंसे उपजे मध्यमरूप अर्बुदआदिरोगोंमें मध्यमखारको प्रयुक्त करे, पित्त और रक्तसे उपजे अर्शआदिरोगोंमें कोमल खारको प्रयुक्त करै, और करडे हुये तिस क्षारमें बदके आथानके अर्थ क्षारविधिसे झिरेहुये पानीको मिलावै ॥ २३॥
नातितीक्ष्णो मृदुः श्लक्ष्णः पिच्छिलः शीघ्रगः सितः॥
शिखरी सुखनिर्वाप्यो न विष्यन्दी न चातिरुक् ॥ २४ ॥ न अतितीक्ष्ण, मृदु श्लक्ष्ण, पिच्छिल, शीघ्रग, सित, शिखरी, सुखनिर्वाप्य, झिरनेपनेसे . रहित, अतिपीडासे रहित ॥ २४ ॥
क्षारो दशगुणः शस्त्रतेजसोरपि कर्मकृत् ॥
आचूषन्निव संरम्भादात्रमापीडयन्निव ॥२५॥ ___ इन दशगुणोंवाला खार होता है, शस्त्र और अग्निके कर्मकोभी कर सकता है और संक्षोभसे मंगको दग्ध और पीडितकरताकी तरह ॥ २५॥
सर्वतोऽनुसरन्दोषानुन्मूलयति मूलतः ॥ कर्म कृत्वा गतरुजः स्वयमेवोपशाम्यति ॥ २६ ॥
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