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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (२६३) जो दृढमूलपनेसे खारकरके दग्ध हुआ स्थान नहीं झिरे, तो कांजी, जब मुलहटी, तिलोंका लेप कराना योग्य है ।। ३३ ॥
तिलकल्कः समधुको घृताक्तो व्रणरोपणः ॥
पक्कजम्बुसितं सन्नं सम्यग्दग्धं विपर्यये ॥ ३४॥ मुलहटीकरके संयुक्त हुए तिलोंके कल्कमें घृत मिला लेपकरनेसे व्रणपै अंकुर आता है और पके हुये जामनके समान कृष्ण और नीचेहये स्थानको सम्यक् दग्ध जानना और इससे विपरीत ॥ ३४ ॥
तांम्रतातोदकवाद्यैर्दुर्दग्धं तं पुनर्दहेत् ॥ . अतिदग्धे स्त्रवेद्रक्तं मूर्छादाहज्वरादयः ॥ ३५॥
और तांबाके रूप शूल और खाज आदिसे संयुक्त हुये स्थानको दुर्दग्ध जानना, तिसको फिर दग्ध कर और अति दग्ध स्थानमें रक्तका झिरना मूर्छा दाह ज्वर आदिरोग उपजते हैं ॥ ३५ ॥
गुदे विशेषाद्विण्मूत्रसंरोधोऽतिप्रवर्तनम् ॥
पुंस्त्वापघातो मृत्युर्वा गुदस्य शातनाध्रुवम् ॥ ३६ ॥ अति दग्ध हुई गुदामें विशेष करके विष्ठा मूत्रका कदाचित रुकना और कदाचित् अतिप्रवृत्त होना और पूर्वोक्त रक्तका झिरना आदिभी सब रोग और नपुंसकता कदाचित् गुदाके कटजानेसे निश्चय मृत्यु हो जाती है ॥ ३६॥
नासायां नासिकावंशदरणाकुश्चनोद्भवः ॥
भवेच्च विषयाज्ञानं तद्वच्छोत्रादिकेष्वपि ॥ ३७॥ खारसे अति दग्ध हुई नासिकामें नासिकाके वंशका फटजाना और आकुंचन उपजता है और गंधका ज्ञान नहीं रहताहै और खारकरके दग्धहुये कान नेत्र जीभमेंभी अपने अपने विषयोंका अज्ञान उपजता है ॥ ३७ ॥
विशेषादत्र सेकोऽम्लैलेंपो मधु घृतं तिलाः॥
वातपित्तहरा चेष्टा सर्वैव शिशिरा क्रिया ॥ ३८॥ विशेषकरके यहां कांजीआदिकरके सेंक, शहद, घत इन्होंका लेप हित है और वात तथा पित्तको हरनेवाली सब प्रकारकी शीतल किया हित है ॥ ३८ ॥
अम्लो हि शीतः स्पर्शेन क्षारस्तेनोपसंहितः॥
यात्याशु स्वादुतां तस्मादम्लैर्निर्वापयेत्तराम् ॥ ३९ ॥ अम्लरस स्पर्शमें शीतल है तिससे मिलकर खार शीबही स्वादुभावको प्राप्त होजाता है, तिस, कारणसे कांजीआदिकरके अत्यंत सेचित करै ॥ ३९ ॥
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