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(२५२)
अष्टाङ्गहृदये
न पीडित करे न खुजावै, किंतु चेष्टा करता हुआ मनुष्य पालता रहै और मित्र वृद्ध, ब्राह्मण इन्होंकी प्रियरूप कथाको सुनता रहे ॥ ४२ ॥
आशावान्व्याधिमोक्षाय क्षिप्रं व्रणमपोहति ॥ .. तृतीयेऽह्नि पुनः कुर्याद्वणकर्म च पूर्ववत् ॥४३॥
रोगके नाशकी आशा रक्खे, ऐसा मनुष्य शीघ्रही व्रणको नाशता है और तीसरे दिन फिर प्रक्षालनआदि व्रणकर्मको पहलेकतिरह करै ॥ ४३॥
प्रक्षालनादि दिवसे द्वितीये नाचरेत्तथा ॥
तत्रिव्यथो विग्रथितश्चिरात्संरोहति व्रणः ॥४४॥ परंतु दूसरे दिन प्रक्षालनआदि व्रणकर्मको कभी आचरित न करै ऐसा करनेसे तिस प्रकार करके तीव्र पीडावाला और गांठोंसे संयुक्त व्रण चिरकालसे अंकुरको प्राप्त होता है ।। ४४ ॥
स्निग्धां रूक्षां श्लथां गाढा दुय॑स्तांश्च विकेशिकाम् ॥
वणे न दद्यात्कल्कञ्च, स्नेहाक्लेदो विवर्द्धते ॥ ४५ ॥ स्निन्ध और रूखी और शिथिलरूप और गाढी और विषम तरहसे स्थापित व्रणके भीतर प्रवेश करनेवाली वर्तीको कल्कको ब्रणमें न देवै क्योंकि स्नेहसे केदकी वृद्धि होती है ॥ ४५ ॥
मांसच्छेदोऽतिरुग्रौक्ष्यादरणं शोणितागमः॥
श्लथातिगाढदुासैर्वणवावघर्षणम् ॥ ४६॥ अतिरूखेपनसे मांसको छेद, अतिपीडा, दारण, रक्तका आगमन, ये उपजते हैं और शिथिल, रूप, अतिगाढी, विषमस्थानमें स्थित होनेसे व्रणके मार्गका अवघर्षण होता है ॥ १६ ॥
सपूतिमांसं सोत्संगं सगतिं पूयभिणम् ॥
व्रणं विशोधयेच्छीघ्र स्थिता ह्यन्तर्विकेशिका ॥४७॥ दुगंधित मांस ऊंचा और गतियुक्त रादसे संयुक्त व्रणको भीतर प्राप्त हुई बत्ती तत्काल शोधती है ॥ ४७ ॥
व्यम्लन्तु पाटितं शोफ पाचनैः समुपाचरेत् ॥
भोजनैरुपनाहैश्च नातिव्रणविरोधिभिः ॥४८॥ विदग्ध, पक्व, पाटित, शोजेको पाचनरूप भोजन और उपनाह और जो व्रणके अति विरोधी न हों ऐसे पदार्थोंकरके उपाचरित करै ।। ४८ ॥
सद्यः सद्योत्रणान् सीव्येद्विवृत्तानभिघातजान् ॥ मेदोजान् लिखितान् ग्रन्थीन् हस्वाः पालीश्च कर्णयोः॥४९॥
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