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(२३६)
अष्टाङ्गहृदये-, कफात्स्निग्धमसृक्पाण्डु तन्तुमत्पिच्छिलं धनम् ॥
संसृष्टलिङ्गं संसर्गात्रिदोषं मलिनाविलम् ॥ ४१ ॥ स्निग्ध और सफेद और तानोंसे संयुक्त और पिच्छिल तथा करडा रक्त कफसे दूषित होता है, और मलिन अर्थात् काला और करडा रक्त त्रिदोषसे दूषित होताहै ।। ४१ ॥
अशुद्धौ बलिनोऽप्यस्त्रं न प्रस्थात्स्रावयेत्परम् ॥
अतिस्रुतौ हि मृत्युः स्यादारुणा वा चलामयाः॥ ४२ ॥ बलवाले मनुष्यकेभी अशुद्ध रक्तको प्रस्थ अर्थात् चौसठ तथा पचपन तोलेभर रक्तसे ज्यादे रक्तको नहीं निकासै,क्योंकि रक्तको अति निकासनेमें मृत्यु अथवा दारुणरूप वातरोग उपजते हैं४२
तत्राभ्यङ्गरसक्षीररक्तपानानि भेषजम् ॥
सुते रक्ते शनैर्यन्त्रमपनीय हिमाम्बुना ॥ ४३॥ जो रक्त अति निकासा जावे, तौ अभ्यंग मांसका रस दूध रक्त इन्होंका पान करना यह औषध है और जब यथायोग्य रक्त निकासचुके तब हौलेहौले यंत्रको खोलके शीतल पानांसे ॥ ४३ ॥
प्रक्षाल्य तैलप्लोताक्तं बन्धनीयं शिरामुखम् ॥
अशुद्धं स्त्रावयेद्भूयः सायमढ्यपरेऽपि वा ॥४४॥ शिराके मुखको प्रक्षालितकर और तेलसे भिगोके तिस सिरामुखको अच्छीतरहबांधना उचित है और अशुद्धरूप रक्तको जानकर फिर सायंकालमें अथवा दूसरे दिन निकासे ॥ ४४ ॥
स्नेहोपस्कृतदेहस्य पक्षाद्वा भृशदूषितम् ॥
किश्चिद्विशेषे दुष्टास्ने नैव रोगोऽतिवर्त्तते ॥ ४५ ॥ स्नेहकरके भावित देहवाले मनुष्यके अत्यंत दुष्ट हुये रक्तको पक्ष अर्थात् १५ दिनके उपरांत फिर निकास और किंचिन्मात्र दुष्टरक्त शेष रहनेसे रोगक्रियाके मार्गको अतिक्रमण करके अन्य मार्गमें नहीं प्राप्त होता है ॥ ४५ ॥
सशेषमप्यतो धार्य न चातिस्रुतिमाचरेत् ॥
हरेच्छृङ्गादिभिः शेषं प्रसादमथवा नयेत् ॥ ४६॥ इसवास्ते शेष सहितभी दुष्टरक्तको धारै, परंतु दुष्टरक्तको अत्यंत न निकासै, और शेष रहे रक्तको शीगी आदिकरके निकासै अथवा तिसको शुद्ध करे ॥ ४६॥
शीतोपचारपित्तास्त्रक्रियाशुद्धिविशोषणैः॥
दुष्टं रक्तमनुद्रिक्तमेवमेव प्रसादयेत् ॥४७॥ शीतल उपचार और रक्त पित्तमें कही क्रिया और शुद्धि लंघन इन्होंकरके बढेहुये और दुष्टहुये रक्तको साफ करे ॥ ४७ ॥
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