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(२२६)
अष्टाङ्गहृदयेस्यान्नवांगुलविस्तारः सुघनो द्वादशांगुलः ॥
क्षौमपत्रोर्णकौशेयदुकूलमृदुचर्मजः॥३३॥ नवअंगुल विस्तारसे संयुक्त और सुंदर घनरूप और बारह अंगुलकी लंबाईसे संयुक्त और रेशमी वस्त्र पत्ता ऊन कौशेयवख सुंदरवस्त्र कोमल चर्मसे बनाहुआ ॥ ३३॥
विन्यस्तपाशः सुस्यूतः सान्तरोर्णास्थशस्त्रकः॥
शलाकापिहितास्यश्च शस्त्रकोशः सुसंचयः॥ ३४ ॥ बनेहुये पाशवाला सम्यक् प्रकार साफ किया, और भीतरसे व्यवधान सहित ऊनमें स्थित होने वाले शस्त्रोंसे संयुक्त और शलाईकरके आच्छादितमुख सुंदर संचयवाले शस्त्रकोश अर्थात् शस्त्रोंका स्थान बनाना चाहिये ॥ ३४ ॥
जलौकसस्तु सुखिनां रक्तस्रावाय योजयेत् ॥ ३५॥ और सुखी मनुष्योंके रक्तको शिरानेके अर्थ जोकोंको प्रयुक्त करै ॥ ३५ ॥
दुष्टाम्बुमत्स्यभेकाहिशवकोऽथ मलोद्भवाः॥
रक्ता श्वेता भृशं कृष्णाश्चपलाः स्थूलपिच्छिलाः॥ ३६ ॥ दुष्टपानीसे उपजी और मछली मेंडक, सर्पमुर्देके विष्ठा और मूत्रसे उपजी और रक्त तथा श्वत और अत्यंत काली और चपल और स्थूल तथा पिच्छलरूपवाली ॥ ३६॥
इन्द्रायुधविचित्रोर्ध्वराजयो रोमशाश्च ताः ॥
सविषा वर्जयेत्ताभिः कण्डूपाकज्वरभ्रमाः॥ ३७॥ और इन्द्रके धनुषकी तरह विचित्र ऊपरको पंक्तियोंवाली और रोयोंवाली जोक विषवाली होती है, तिन्होंको युक्त न करै क्योंकि तिन्होंकरके खाज पाक ज्वर भ्रम आदिरोग उपजते हैं ॥ ३७॥
विषपित्तास्रनुत्कार्यं तत्र शुद्धाम्बुजाः पुनः॥
निर्विषाः शैवलश्यावा वृत्ता नीलोर्ध्वराजयः॥ ३८ ॥ तहां विष और रक्तपित्तको दूर करनेवाला कर्म प्रयुक्त करना, और शुद्धपानीसे उपजी और बिषसे रहित और शिवालकी तरह कपिश रंगवाली गोल और नीलेरङ्गके ऊपरको पंक्तियोंवाली ॥३८॥
कषायपृष्ठास्तन्वंग्यः किञ्चित्पीतोदराश्च याः ॥
ता अप्यसम्यग्वमनात्प्रततं च निपातनात् ॥ ३९॥ वडआदि वृक्षकी छालके वर्णकी समान पृष्ठभागवाली, और सूक्ष्म अङ्गोंवाली और कछुक पीत वर्ण उदरवाली जोक उत्तम होती है, और दुष्टरक्तको अच्छीतरह नहीं वमन करनेसे और निरन्तर रक्तको पान करनेसे जो विषकरके रहितभी जोक होवे ॥ ३९ ॥
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