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(२३०)
अष्टाङ्गहृदयेमधुर और कछुक शलोना और न शीतल न गरम और द्रवरूप और कमल इंद्रगापकीडाः सोना, मेंढा, शूसा इन्होंके लोहूके समान जो रक्त होता है ॥ १ ॥
लोहितं प्रवदेच्छुद्धं तनोस्तेनैव च स्थितिः॥
तत्पित्तश्लेष्मलैः प्रायो दृष्यते कुरुते ततः ॥ २॥ तिसको वैद्य शुद्धरक्त कहते हैं तिसीकरके शरीरको स्थिती रहती है और वही रक्त विशेषता करके क्षार गरम तीक्ष्ण और उडद तिल आदिकरके दूषित होता है पीछ दूषित हुआ वह रक्त।।२।।
विसर्पविद्रधिप्लीहगुल्मानिसदनज्वरान् ॥
मुखनेत्रशिरोरोगमदतृड्लवणास्यताः॥३॥ विसर्प, विद्रधी, प्लीहरोग, गुल्मरोग मंदाग्नि, ज्वर, मुखरोग, नेत्ररोग, शिरोरोग, मदरोग - तृषा, मुखका सिलोनापना ॥ ३ ॥
कुष्ठवातास्रपित्तास्रकट्टम्लोद्गीरणभ्रमान् ॥
शीतोष्णस्निग्धरूक्षाद्यैरुपक्रान्ताश्च ये गदाः ॥४॥ ___ कुष्ठ, वातरक्त, रक्तपित्त, कडवा और अम्लउद्गार अर्थात् डकार, भ्रम इन्होंको करता है जो शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष इनआदि औषधोंकरके उपक्रांत ॥ ४ ॥
सम्यक् साध्या न सिध्यन्ति ते च रक्तप्रकोपजाः ॥
तेषु स्रावयितुं रक्तमुद्रिक्तं व्यधयेच्छिराम् ॥५॥ और अच्छीतरह साध्यरूपभी रोग सिद्ध नहीं होते वे रक्तके कोपसे उपजे जानने तिन बिसर्प आदि रोगोंमें बढेहुये रक्तको छिरानेके अर्थ शिराको बींधै ॥ ५ ॥
न नूनषोडशातीतसप्तत्यब्दस्रुतासृजाम् ॥
अस्निग्धास्वेदितात्यर्थस्वदितानिलरोगिणाम् ॥६॥ ___ परंतु सोलह वर्षसे कम अवस्थावाला और सत्तर वर्षसे ऊंची अवस्थावाला और रक्तको निकासेहुये और स्निग्धपनेसे रहित और स्वेदसे रहित और अत्यंत स्वेदवाला और वातरोगी ॥ ६ ॥
गर्भिणीसृतिकाजीर्णपित्तास्रश्वासकासिनाम् ॥
अतीसारोदरच्छर्दिपाण्डुसर्वाङ्गशोफिनाम् ॥ ७॥ गर्भिणी, सूतिका, और अजीर्ण, श्वास, खांसी रोगोंवाले और अतिसार, उदररोग छर्दि, पांडुरोग, सब अंगोंमें शोजा रोगोंवाले ॥ ७ ॥
स्नेहपीते प्रयुक्तेषु तथा पञ्चसु कर्मसु॥ नायन्त्रितां शिरां विध्यन्नतिर्यङ्नाप्यनुत्थिताम् ॥ ८॥
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