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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
( १३१ )
क्योंकि सब विकारोंके नाम से निश्चितरूप स्थिति नहीं है और हेतुके भेदसे कुपित हुआ
-दोष ॥ ६४ ॥
स्थानान्तराणि च प्राप्य विकारान्कुरुते बहून् ॥ तस्माद्विकारप्रकृतीरधिष्ठानान्तराणि च ॥ ६५॥
अपने स्थानको त्याग और अन्यस्थानों में प्राप्त होकर बहुतसे विकारोंको करता है, तिसकारण से विकारोंके उपादानकारण - अविप्रानांतर || ६५ ।
वृद्धा हेतुविशेषांश्च शीघ्रं कुर्यादुपक्रमम् ॥
दृष्यं देशं वलं कालमनलं प्रकृतिं वयः ॥ ६६ ॥
हेतुविशेष- इन्होंको जानकर शीघ्र ही चिकित्सा करे, और दूष्प - देश बल-काल जठराग्निप्रकृति-- अवस्था ॥ ६६ ॥
सत्त्वं सात्म्यं तथाहारमवस्थाश्च पृथग्विधाः ॥
सूक्ष्मसूक्ष्माः समीक्ष्यैषां दोषौषधनिरूपणे ॥ ६७ ॥
सत्य - सात्म्य - आहार - इन्होंकी सूक्ष्म सूक्ष्म अवस्थाओं को देखकर पीछे दोष और औषधके निरूपणके अर्थ ॥ ६७ ॥
यो वर्त्तते चिकित्सायां न स स्खलति जातुचित् ॥
गुर्वल्पव्याधिसंस्थानं सवदेहबलाबलात् ॥ ६८ ॥
जो वैद्य चिकित्सा में वर्तता है वह कदाचितभी अपराधी नहीं हो सक्ता और सत्व - देह बलअब इन्होंसे गुरु और अल्प व्याधिका संस्थान है ॥ ६८ ॥
दृश्यतेऽप्यन्यथाकारं तस्मिन्नवहितो भवेत् ॥
गुरुं लघुमिति व्याधिं कल्पयंस्तु भिषग्वः ॥ ६९ ॥
वह विपरीत आकृतिवाला दीखता है इसवास्ते तिसविषे वैद्य सावधान रहे और जो वैद्य गुरु और लघु व्याधिको कल्पित करता हुआ ॥ ६९ ॥
अल्पदोषाकलनया पथ्ये विप्रतिपद्यते ॥
ततोऽल्पमल्पवीर्यं वा गुरुव्याधौ प्रयोजितम् ॥ ७० ॥
होनमात्रा दोषको निश्चय करके चिकित्सा में मोहको प्राप्त होजाता है वह कुत्सित वैद्य कहाता
हैं, और गुरु अर्थात् महानूरोग में अल्प और अल्पवीर्यसे संयुक्त प्रयोजित किया ॥ ७० ॥ उदीरयेत्तरां रोगान्संशोधनमयोगतः ॥
शोधनं त्वतियोगेन विपरीतं विपर्यये ॥ ७१ ॥
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