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(१८८)
अष्टाङ्गहृदयेतिस नेत्रके कोमल और हलकी बस्तिको योजित करना और इसमें २ तोलेभर स्नेहकी मात्रा है अथवा बल, अवस्था, देहकी प्रकृति, आदिके अनुसार मात्रा कल्पितकरनी, पीछे पहले स्नान करके स्नेह बास्तिके विधानसे भोजन करनेवाले मनुष्यको ॥ ७३ ॥
ऋजोः सुखोपविष्टस्य पीठे जानुसमे मृदौ ॥
हृष्टे मेढ़े स्थिते चौ शनैः स्रोतोविशुद्धये ॥ ७४ ॥ और कोमलपनेसे स्थित हुआ और गोडोंके समान और कोमल आसनपर सुखपूर्वक बैठे हुए मनुष्यके आनंदित और स्तब्ध और स्पष्टतासे स्थित लिंगमें स्त्रोतोंकी शुद्धिके अर्थ हौले ॥ ७४ ॥
सूक्ष्मां शलाकां प्रणयेत्तया शुद्धेऽनुसेवनीम् ॥
आमेहनान्तं नेत्रं च निष्कम्पं गुदवत्ततः ॥ ७५ ॥ सूक्ष्मरूप शलाकाको प्राप्त करे, पीछे तिस शलाकाकरके शुद्ध हुये लिंगमें सीमनको अनुलक्षित कर लिंगतक गुदाकी तरह निष्कंप नेत्रको प्राप्त करै यह कार्य कुशलतासे करना चाहिये ॥ ७९ ॥
पीडितेऽन्तर्गते स्नेहेस्नेहबस्तिक्रमोहितः॥
बस्तीननेन विधिना दद्यात् त्रींश्चतुरोऽपि वा ॥ ७६ ॥ स्थापनके अनंतर पीडितरूप स्नेह जब भीतरको प्रविष्ट होजावे तब स्नहेबास्तिका क्रम हित है, इस विधिकरके तीन अथवा चार बस्तियोंको देवै ॥ ७६ ॥
अनुवासनवच्छेषं सर्वमेवास्य चिन्तयेत् ॥
स्त्रीणामार्तवकाले तु योनिःह्णात्यपावृतेः ॥ ७७॥ पीछे इस मनुष्यके अनुवासनबस्तिके समान सर्व शेष कर्म करना चाहिये और स्त्रियोंके आर्तचकालमें योनि अपावरणरूप कारणसे उत्तरबस्ति स्वभाववाले स्नेहको ग्रहण करती है ॥ ७७ ॥
विदधीत तदा तस्मादनृतावपि चात्यये ॥
योनिविभ्रंशशूलेषु योनिव्यापदसृग्दरे ॥ ७८॥ तिसीकारणसे आर्तवकालसे रहितकालमेंभी जो व्याधिको उत्पत्ति होवे तो उत्तर बस्तिको देवै अर्थात् योनिविभ्रंश, योनिशूल, योनिव्यापद् प्रदररोग इन रोगोंमें उत्तर बस्तिको ऋतुकालसे रहित कालमेंभी निश्चय उत्तरबस्तिको देवै ॥ ७८ ॥
नेत्रं दशाङ्गुलं मुद्गप्रवेशं चतुरंगुलम् ॥
अपत्यमार्गे योज्यं स्यावचंगुलं मूत्रवर्त्मनि ॥ ७९ ॥ दीर्घताकरके दशअंगुलप्रमाणसे संयुक्त और मूंगका प्रवेश होसकै ऐसा अग्रभागमें होवै ऐसा बस्तिका नेत्र स्त्रियोंके अर्थ हित है यह नेत्र ४ अंगुलप्रमाणित स्त्रीके अपत्यमार्गमें योजित
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