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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
एकविंशतितमोऽध्यायः ।
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अथातो धूमपानविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः ।
इसके अनंतर धूमपानविधिनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे । जनूर्ध्वं कफवातोत्थविकाराणामजन्मने ॥ उच्छेदाय च जातानां पिबेद्धमं सदात्मवान् ॥ १ ॥
हित और अहितको जाननेवाला मनुष्य जत्रुसे ऊपर कफ और वातसे उपजे विकारों की उत्पत्ति न होनेके अर्थ और उत्पन्न हुये तिन विकारोंकी शांति के अर्थ धूमको पानकरै ॥ १ ॥ स्निग्धो मध्यः स तीक्ष्णश्च वाते वातकफे कफे ॥ योज्यो न रक्तपित्तार्तिविरिक्तोदरमेहिषु ॥ २ ॥
चात, वातकफ, कफ इन्होंमें क्रमसे स्निग्ध, तीक्ष्ण, धूमा प्रयुक्त करना योग्य है और रक्तपित्तसे पीडित, विरिक्त, उदररोगी और प्रमेही || २ || तिमिरोर्ध्वानिलाध्मानरोहिणीदत्तवस्तिषु मत्स्यमद्यदधिक्षीरक्षौद्रस्नेहविषाशिषु ॥ ३ ॥
॥
तिमिर, ऊर्ध्ववात, आध्मान, रोहिणीरोग इन रोगोंवाले और बस्तिको लियेहुये और मछली मदिरा, दही, दूध, शहद, स्नेह, विषको खानेवाले मनुष्योंके अर्थ ॥ ३ ॥
शिरस्यभिहते पाण्डुरोगे जागरिते निशि ॥
रक्तपित्तान्ध्यवाधिर्यतृण्मूर्च्छामदमोहकृत् ॥ ४ ॥
शिरकी चोटमें पांडुरोगमें और रात्रिभरके जागनेमें धूमको प्रयुक्त न करे । रक्तपित्त, आंध्यरोग, बधिरपना, तृषा, मूर्च्छा, मद, मोह इनरोगोंको अकालमें किया धूमपान करता है ॥ ४ ॥ धूमोऽकालेऽतिपीतो वा तत्र शीतो विधिर्हितः ॥ क्षुतजृम्भितविण्मूत्रस्त्रीसेवाशस्त्रकर्मणाम् ॥ ५ ॥
अकालमें वा अत्यंत पान किया धूम पूर्वोक्त रोग करता है तहां शीतलविधिका करना हित है और छींक, जंभाई, त्रिष्ठा और मूत्रका त्याग, मैथुन, शस्त्रकर्म, ॥ ५ ॥
हासस्य दन्तकाष्ठस्य धूममन्ते पिवेन्मृदुम् ॥
कालेष्वेषु निशाहारनावनान्ते च मध्यमम् ॥ ६ ॥
हास, दतौनके अंत में कोमल धूमेको पीवै, और इन्ही कालोंमें रात्रिका भोजन और नस्यके अंत में मध्यमरूप धूमको पीवै ॥ ६ ॥
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