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अष्टाङ्गहृदयेनिद्रानस्याञ्जनस्नानच्छार्दतान्ते विरेचनम् ॥
बस्तिनेत्रसमद्रव्यं त्रिकोशं कारयेदृजु ॥७॥ नींद, नस्य, अंजन, स्नान छर्दिके अंतमें विरेचनसंज्ञक धूमेको पीवै, और बस्तिका नेत्रके समान द्रव्य सेवन हुआ और तीन पोरुओंसे संयुक्त और टेढापनसे रहित ॥ ७ ॥
मूलाग्रेऽङ्गुष्ठकोलास्थिप्रवेशं धूमनेत्रकम् ॥
तीक्ष्णस्नेहनमध्येषु त्रीणि चत्वारि पञ्च च ॥८॥ और मूलमें तथा अग्रभागमें क्रमसे अंगुठा और बेरकी गुटली प्रवेश करसकै ऐसा धूमेको ग्रहण करनेका नेत्र होना चाहिये और तीक्ष्ण स्नेहन, मध्य इन धूमों में क्रमसे ॥ ८ ॥
अगुलानां क्रमात्पातुः प्रमाणेनाष्टकानि तत् ॥
ऋजूपविष्टस्तच्चेता विवृतास्यस्त्रिपर्ययम् ॥९॥ पान करनेवाले मनुष्यके अंगुलों के प्रमाणकरके २४ अंगुल, और ३२ अंगुल और ४० अंगुल दीर्घता होनी चाहिये, और स्पष्ट तरह बैठाहुआ और धूमपानमें चित्तको लगाये मुखफैलाये हुए मनुष्य आक्षेप, विसर्ग, आवपन, तीन पर्यायोंकरके ॥९॥
पिधाय च्छिद्रमेकैकं धूमं नासिकया पिवेत् ॥ .
प्राक् पिबेन्नासयोक्लिष्टे दोषे घाणशिरोगते ॥ १०॥ अर्थात् एक छिद्रको ढककर धूमेको नासिकाकरके पावै और दूसरे छिद्रसे निकालदे ऐसे तीन वार करे और नासिका तथा शिरमें प्राप्त हुआ और स्वस्थानसे चलित दोपमें पहलेही नासिकाकरके धूमेको पीवै ॥ १० ॥
उत्क्लेशनार्थं वक्रेण विपरीतं तु कण्ठगे।।
मुखेनैव वमेछूमं नासया दृग्विघातकृत् ॥११॥ और जो चलायमान दोष नहीं होवे तो उत्क्लेशनके अर्थ पहले मुखकरके और पीछे नासिका करके पान करे और कंठरोधदोपका उक्लेशनके अर्थ धूमेको पहले नासिकाकरके और पीछे मुखके द्वारा पीवै और नासिकाकरके तथा मुखकरके पान किये धूमेको मुखकरके निकासै क्योंकि नासिकाके द्वारा निकासाहुआ धूमा दृष्टिके विघातको करता है ।। ११ ॥
आक्षेपमोक्षैः पातव्यो धूमस्तु त्रिस्त्रिभिस्त्रिभिः॥
अह्नः पिबेत्सकृत्स्निग्धं द्विर्मध्यं शोधनं परम् ॥१२॥ आक्षेप अर्थात् ग्रहण करना और मोक्ष अर्थात् त्यागना इन्होंकरके तीन तीनवार धूमा पीनको योग्य है और दिनमें स्निग्धरूप धूमेको एकवार पीवै और मध्यम धूमेको दोवार पावै और शोधन संज्ञक धूमेको ३ वार अथवा ४ वार पीवै ॥ १२ ॥
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