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मूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । . (१४५) बस्तिहृन्मूद्धजङ्घोरुत्रिकपाश्र्वरुजा ज्वरः॥
प्रलापोर्धानिलग्लानिच्छर्दिः पर्वास्थिभेदनम् ॥ ३०॥ और बस्तिस्थान-हृदय-माथा-जंघा-ऊरू-त्रिकस्थान–पसली-इन्होंमें पीडा-ज्वर-प्रलापअर्धवात-ग्लानि-छर्दि-संधिभेद-अस्थिभेद ।। ३० ॥
विण्मूत्रादिग्रहाद्याश्च जायन्तेऽतिविलङ्घनात् ॥
कार्यमेव वरं स्थौल्यान्नहि स्थूलस्य भेषजम् ॥३१॥ विष्ठा-मूत्रआदिका ग्रह आदि रोग, अतिलंघन करनेसे होते हैं और स्थूलपनेसे कृशपनाही श्रेष्ठ है क्योंकि स्थूलताको दूर करनेको औषध ( सुलभ ) नहींहै ॥ ३१ ॥
बृंहणं लङ्घनं नालमतिमेदोऽग्निवातजित् ॥
मधुरस्निग्धसौहित्यैर्यत्सौख्येन विनश्यति ॥ ३२ ॥ अतिमेद-अति अग्नि-और अति वातको जीतनेवाला बृंहण और लंघन औषध पूर्णतया समर्थ । नहीं है जो मधुर-स्निग्ध भोजन-तृप्ति आदिसे सुखसे नाशकरसके ॥ ३२ ॥
क्रशिमा स्थविमात्यन्तविपरीतनिषेवणैः ॥
योजयेबृंहणं तत्र सर्व पानान्नभेषजम् ॥३३॥ और अत्यंत विपरीत पदार्थोंको सेवनेसे कृशता और स्थूलपना दूर होता है और कृशमनुष्यके अर्थ पान-अन्न औषध ये सब बृंहणरूप देने चाहिये ॥ ३३ ॥
अचिन्तया हर्षणेन ध्रुवं सन्तर्पणेन च ॥
स्वप्नप्रसङ्गाच्च कृशो वराह इव पुष्यति ॥ ३४॥ चिंताका अभाव-आनन्द-भोजनआदि तृप्ति-शयनका प्रसंग इन्होंकरके कृशमनुष्यभी सूक- . रकी तरह पुष्ट होजाता है ।। ३४ ॥
न हि मांससमं किञ्चिदन्यदेहबृहत्त्वकृत् ॥
मांसादमांसं मांसेन सम्भृतत्वाद्विशेषतः॥ ३५॥ देहकी वृद्धि करनेवाला पदार्थ मांसके समान कोई नहीं है और मांसकरके पुष्ट देहवाला होनेसे मांसको खानेवाले जीवका मांस विशेषकरके देहको बढाता है ॥ ३५ ॥
गुरु चातर्पणं स्थूले विपरीतं हितं कृशे ॥
यवगोधूममुभयोस्तद्योग्याहितकल्पनम् ॥ ३६॥ भारी पदार्थ और लंघन करना ये दोनों स्थूल मनुष्यको हित हैं और हलका पदार्थ और संतर्पण ये दोनों कृश मनुष्यको हित हैं, स्थूलमनुष्यके अर्थ जब देने हित हैं, और गेहूं कृशमनुष्यके अर्थ देने हित हैं ॥ ३६ ॥ १ चिन्ता और परिश्रमसे भवश्य स्थूलता दूर होजाती है यही इसकी विशेष औषध है और अनुभवकी है।
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