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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(१५५) स्नेह्या नत्वतिमन्दाग्नितीक्ष्णाग्निस्थूलदुर्बलाः॥
ऊरुस्तम्भातिसारामगलरोगगरोदरैः॥६॥ अतिमंदअग्निवाला- तीक्ष्णअग्निवाला-स्थूल-दुर्बल-ऊरुस्तंभ-अतीसार-आमरोग-गलरोगविषरोग-इन रोगोंवाले ॥ ६ ॥
मूर्छाछर्यरुचिश्लेष्मतृष्णामद्यैश्च पीडिताः॥
अपप्रसूता युक्ते च नस्ये वस्तौ विरेचने ॥७॥ और मूर्छा–छर्दि-अरुचि-कफ-तृषा-मदिरा-इन्होंकरके पीडित और गर्भको गिरानेवाली स्त्री और नस्य-जुलाब-वस्ति इन कोंको प्रयुक्त करनेवाले ये सब मनुष्य स्नेहकर्मके योग्य नहीं हैं।७॥
तत्र धीस्मृतिमेधाग्निकांक्षिणां शस्यते घृतम् ॥
ग्रन्थिनाडीकृमिश्लेष्ममेदो मारुतरोगिषु ॥८॥ परन्तु इन्होंमें बुद्धि, स्मृति, मेधा, अग्नि, इन्होंकी इच्छावाले मनुष्योंके अर्थ घृतका देना भी प्रशस्त है और ग्रंथि, नाडी कृमि, कफ, मेद, वात रोगवाले मनुष्योंके अर्थ भी ॥ ८ ॥
तैलं लाघवदाढार्थिङ्करकोष्ठेषु देहिषु॥
वातातपाध्वभारस्त्रीव्यायामक्षीणधातुषु ॥९॥ और हलकापन दृढपनकी इच्छा करनेवाले और क्रूरकोष्ठवाले मनुष्योंके अर्थ तेलका देना उ. चित है, वात. घाम, मार्ग, भार, स्त्री, कसरत करके क्षीण और क्षीणधातुवाले के अर्थ भी तैल उचित कहीं पान और मनमें तेलका उपयोगकरे ॥९॥
रूक्षक्लेशक्षमात्यग्निवातावृतपथेषु च ॥
शेषौ वसा त सन्ध्यस्थिमर्मकोष्ठरुजासु च ॥ १० ॥ ___ और रूक्ष और क्लेशको सहनेवाले और अतितक्षिण आग्निवाले और बायुकरके आच्छादित छिद्रोंवाले मनुष्योंके अर्थ वसा और मज्जा देनी उचित है, और संधि, हड्डी, मर्म, कोष्टमें पीडावालोंके अर्थ ॥ १० ॥
तथा दग्धाहतभ्रष्टयोनिकर्णशिरोसजि ॥
तैलं प्रावृषि वर्षान्ते सर्पिरन्यौ तुमाधवे ॥ ११ ॥ और अग्निआदिकरके दग्ध और आहृतरोग, भ्रष्टयोनिरोग, कर्णरोग, शिरोरोग इनरोगवालोंके अर्थ वसाका देना उचित है, वर्षाऋतुमे तेल और शरदऋतुमें वृत और वैशाखके महीनेमें वसा और मज्जाका देना उचित है ॥ ११ ॥
ऋतौ साधारणे स्नेहः शस्तोऽह्नि विमले रवौ ॥ तैलं त्वरायां शीतेऽपि धर्मपि च घृतं निशि ॥ १२ ॥
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