SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । ( १३१ ) क्योंकि सब विकारोंके नाम से निश्चितरूप स्थिति नहीं है और हेतुके भेदसे कुपित हुआ -दोष ॥ ६४ ॥ स्थानान्तराणि च प्राप्य विकारान्कुरुते बहून् ॥ तस्माद्विकारप्रकृतीरधिष्ठानान्तराणि च ॥ ६५॥ अपने स्थानको त्याग और अन्यस्थानों में प्राप्त होकर बहुतसे विकारोंको करता है, तिसकारण से विकारोंके उपादानकारण - अविप्रानांतर || ६५ । वृद्धा हेतुविशेषांश्च शीघ्रं कुर्यादुपक्रमम् ॥ दृष्यं देशं वलं कालमनलं प्रकृतिं वयः ॥ ६६ ॥ हेतुविशेष- इन्होंको जानकर शीघ्र ही चिकित्सा करे, और दूष्प - देश बल-काल जठराग्निप्रकृति-- अवस्था ॥ ६६ ॥ सत्त्वं सात्म्यं तथाहारमवस्थाश्च पृथग्विधाः ॥ सूक्ष्मसूक्ष्माः समीक्ष्यैषां दोषौषधनिरूपणे ॥ ६७ ॥ सत्य - सात्म्य - आहार - इन्होंकी सूक्ष्म सूक्ष्म अवस्थाओं को देखकर पीछे दोष और औषधके निरूपणके अर्थ ॥ ६७ ॥ यो वर्त्तते चिकित्सायां न स स्खलति जातुचित् ॥ गुर्वल्पव्याधिसंस्थानं सवदेहबलाबलात् ॥ ६८ ॥ जो वैद्य चिकित्सा में वर्तता है वह कदाचितभी अपराधी नहीं हो सक्ता और सत्व - देह बलअब इन्होंसे गुरु और अल्प व्याधिका संस्थान है ॥ ६८ ॥ दृश्यतेऽप्यन्यथाकारं तस्मिन्नवहितो भवेत् ॥ गुरुं लघुमिति व्याधिं कल्पयंस्तु भिषग्वः ॥ ६९ ॥ वह विपरीत आकृतिवाला दीखता है इसवास्ते तिसविषे वैद्य सावधान रहे और जो वैद्य गुरु और लघु व्याधिको कल्पित करता हुआ ॥ ६९ ॥ अल्पदोषाकलनया पथ्ये विप्रतिपद्यते ॥ ततोऽल्पमल्पवीर्यं वा गुरुव्याधौ प्रयोजितम् ॥ ७० ॥ होनमात्रा दोषको निश्चय करके चिकित्सा में मोहको प्राप्त होजाता है वह कुत्सित वैद्य कहाता हैं, और गुरु अर्थात् महानूरोग में अल्प और अल्पवीर्यसे संयुक्त प्रयोजित किया ॥ ७० ॥ उदीरयेत्तरां रोगान्संशोधनमयोगतः ॥ शोधनं त्वतियोगेन विपरीतं विपर्यये ॥ ७१ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy