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(१३२)
अष्टाङ्गहृदयेसंशोधनभयोगसे रोगोंको उत्क्लेशित करता है, और लघु अर्थात् छोटे रोगमें अतिरूप और अतिवीर्यवाला संशोधन प्रयुक्त किया जावे तो ॥ ७१ ॥
क्षिणुयान्न मलानेव केवलं वपुरस्यति ॥
अतोऽभियुक्तः सततं सर्वमालोच्य सर्वथा ॥ ७२ ॥ वह केवलमलोंको ही नहीं नाशता है किन्तु शरीरकोभी नाश देता है, इस कारणसे निरन्तर अभियुक्त अर्थात् सदा आयुर्वेदके अनुष्ठानमें तत्पर वैद्य सब कालमें सब दूष्यआदिको देखकर।।७२॥
तथा युञ्जीत भैषज्यमारोग्याय यथा ध्रुवम् ॥
वक्ष्यन्तेऽतः परं दोषा वृद्धिक्षयविभेदतः॥७३॥ आरोग्यके अर्थ औषधको प्रयुक्त करै जिसकरके निश्चय आरोग्यकी प्राप्ति होवे इसके उपरांत वृद्धिक्षयके भेदोंकरिके दोषोंको वर्णन करेंगे ।। ७३ ।।
__ पृथक् त्रीन्विद्धि संसर्गस्त्रिधा तत्र तु तान्नव ॥
त्रीनेव समया वृद्धया षडेकस्यातिशायने ॥७४ ॥ पहले वृद्धवात-वृद्धपित्त-वृद्धकफ--ऐसे तीन दोष हैं इन्होंको तू जान और संसर्गभी ३ प्रकार का है ऐसे नव भेद हुहे अर्थात् वातपित्तके अधिकपनेसे एक और वातकफके अधिकपर्नेसे दूसरा
और पित्तकफके अधिकपनेसे तीसरा भेद जानना और, एक दोषके अधिक बढनेसे छह भेद होजाते हैं; जैसे वात बढाहुआ और पित्त अधिक बढाहुआ १ पित्त बढाहुआ वात अतिबढाहुआ २ कफ बढाहुआ पित्त अति बढाहुआ ३ पित्त बढाहुआ कफ अतिबढाहुआ ४ कफबढाहुआ वात अधिक बढाहुआ ५ वात बढाहुआ कफ अधिक बढाहुआ ६ ऐसे जानो ॥ ७४ ॥
त्रयोदश समस्तेषु षड् दयेकातिशयेन तु॥
एकं तुल्याधिकैः षट् च तारतम्यविकल्पनात् ॥ ७५ ॥ और तीन दोष बढ जावें तब तेरह भेद होते हैं जैसे दोके और एकके बढनेसे छह भेद हैं, कफवृद्ध वातपित्त अधिकवृद्ध १ पित्तवृद्ध वातकफ अतिवृद्ध २ वातवृद्ध पित्तकफ अतिवृद्ध ३ पित्तकफ बढेहुए वात अधिकवृद्ध ४ वात कफ बढ़ेहुए ५ पित्त अतिवृद्ध वात पित्त बढेहुए कफ अतिवृद्ध ६ जानो, और तीनों दोष एकसे बढ़े हुए हों यह एक सन्निपातका भेद है, और छह भेद अति बढनेसे होते हैं, जैसे वात बढा हुआ पित्त अति बढाहुआ कफ अति ज्यादे बढाहुआ १ और वात बढाहुआ कफ अति बढा पित्त अतिज्यादे बढाहुवा २ पित्त बढा कफ अतिबढा वात अति ज्यादे बढाहुआ ३ पित्त बढा वात अति बढा कफ अति ज्यादे बढा ४ कफ बढाहुआ वात अति बढा पित्त अति ज्यादे बढा ६ कफ बढाहुआ वात अति बढा पित्त अति ज्यादे बढाहुआ ६ ऐसे जानो ॥ ७९ ॥
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