________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
( १३० )
अष्टाङ्गहृदये
महारम्भोऽल्पके हेतावान्तको दोषकर्मजः ॥ विपक्षशीलनात्पूर्वः कर्मजः कर्मसंक्षयात् ॥ ५८ ॥
और जो अल्प हेतुके सेनेसे महाआरंभवाला रोग उपजता है वह दोषकर्मज कहाता है उसके विपरीत कर्म्म अभ्याससे दोषजरोगका नाश होता है और कर्मके संक्षय से कर्मजरोगका नाश होता है ॥ ५८ ॥
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
गच्छत्युभयजन्मा तु दोषकर्मक्षयात्क्षयम् ॥
द्विधा स्वपरतन्त्रत्वाद्व्याधयोऽन्त्याः पुनर्द्विधा ॥ ५९ ॥
दोष और कर्मके क्षयसे दोषजकर्मकरोगका नाश होता है, स्वतंत्र और परतंत्रकरके व्याधि दो प्रकारकी है और परतंत्र व्याधिभी दो प्रकारकी है ॥ ५९ ॥ पूर्वजाः पूर्वरूपाख्या जाताः पश्चादुपद्रवाः ॥ यथास्वजन्मोपशयाः स्वतन्त्राः स्पष्टलक्षणाः ॥ ६० ॥ विपरीतास्ततोऽन्ये तु विद्यादेवं मलानपि ॥ तालक्षयेदवहितो विकुर्वाणान्प्रतिज्वरम् ॥ ६१ ॥
एकतो पहले उपजी हुई और दूसरी पीछे उपद्रवरूप होके उपजी हुई. और, यथायोग्य जन्म और सुखसे जानेवाली होवे,और स्पष्ट लक्षणोंसे संयुक्त होवे वह व्याधि स्वतंत्र कहाती है और जो स्वतंत्र के लक्षणोंसे विपरीत होवे वह परतंत्र कहाती है ऐसे ही वैद्यजन मलोंकोभी जानें, परंतु सावधान वैद्य रोग रोगके प्रति विकारको प्राप्त होते हुये तिन वातआदिरोगोंको जानता है॥ ६० ॥६९॥ तेषां प्रधानप्रशमे प्रशमो शाम्यतस्तथा ॥
पश्चाच्चिकित्सेत्तूर्णं वा बलवन्तमुपद्रवम् ॥ ६२ ॥
स्वतंत्र रोगके शांत होनेमें परतंत्र रोगोंकी भी शांति होजाती है, अर्थात् परतंत्रकी पृथक् चिकि त्सा नहीं करे, और जो परतंत्ररोगों की शांति नहीं होवै तभी स्वतंत्ररोगकी ही चिकित्सा करे, अथवा बलवान् परतंत्र रोग होवे तो परतंत्रहीकी चिकित्सा करें ॥ ६२ ॥
व्याधिक्लिष्टशरीरस्य पीडाकरतरो हि सः ॥
विकारनामाकुशलो मजिह्वीयात्कदाचन ॥ ६३ ॥
इस
क्योंकि व्याकरके क्लिष्ट शरीरवाले मनुष्यके उपजा परतंत्र रोग पीडाको अति करता है चास्ते विकारोंके नामोंमें अकुशल वैद्य कदाचित्भी लज्जाको नहीं करै अर्थात् इसबात की लज्जा न करे कि मैंने इस रोगका नाम नहीं जाना है ॥ ६३ ॥
नहि सर्वविकाराणां नामतोऽस्ति ध्रुवा स्थितिः ॥ स एव कुपितो दोषः समुत्थानविशेषतः ॥ ६४ ॥
For Private and Personal Use Only