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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।' (१२९) . कटुकाम्लौ रसौ वर्णः पाण्डुरारुणवर्जितः॥ ..
श्लेष्मणः स्नेहकाठिन्यक्रण्डुशीतत्वगौरवम् ॥५२॥ कटु और खट्टे रसका स्वाद-श्वेत और रक्तसे अन्यवर्ण-ये सब पित्तके कर्म हैं, और स्निग्ध पना-कठिनपना-खाज-शीतलपना-भारीपन ॥ १२॥ . बन्धोपलेपस्तमित्यशोफापत्त्यतिनिद्रताः ॥
वर्णः श्वेतो रसौ स्वादुलवणौ चिरकारिता ॥ ५३॥ स्रोतोंका बंध अस्थियोंको–अनुलेप-अंगोंका गीलापन-शोजा-पाकका अभाव अतिनींदपनाश्वेतवर्ण-स्वादु और लवण रसका स्वाद-कार्य आदिमें विश्रब्धपना ये सब कफके कर्म हैं ॥५॥
इत्यशेषामयव्यापि यदुक्तं दोषलक्षणम् ॥
दर्शनाचैरवहितस्तत्सम्यगुपलक्षयेत् ॥ ५४॥ ये सब रोगोंकरके व्याप्त जो दोषलक्षण हैं वह कहा परन्तु दर्शनआदिकरके सावधान हुआ वैद्य तिस तिस रोगको अच्छी तरह देखता जावै ॥ ५४ ॥
व्याध्यवस्थाविभागज्ञः पश्यन्नार्तान् प्रतिक्षणम् ॥
अभ्यासात् प्राप्यते दृष्टिः कर्मसिद्धिप्रकाशिनी ॥ ५५॥ रोग और अवस्थाके विभागको जाननेवाला वैद्य रोगियोंको क्षण क्षण भरमें देख तो अभ्याससे कर्मकी सिद्धिको प्रकाश करनेवाली दृष्टि प्राप्त होती है ॥ ५५ ॥
रत्नादिसदसज्ज्ञानं न शास्त्रादेव जायते ॥
दृष्टापचारजः कश्चित्कश्चित्पूर्वापराधजः ॥ ५६ ॥ जैसे रत्नआदिके अच्छेबुरेका ज्ञान केवल शास्त्रहीसे नहीं होता है किंतु अभ्याससेभी होता है . तैसे चिकित्साकर्मभी केवलशास्त्रसेही नहीं होता है किंतु अभ्याससे होता है कोईक रोग ऐहिक क लौकिक रोगके हेतुसे उपजता है, और कोईक पूर्वकृतपापोंसे उपजता है ॥ ५६ ॥
तत्सङ्कराद्भवत्यन्यो व्याधिरेवं त्रिधा स्मृतः॥
यथा निदानदोषोत्थः कर्मजो हेतुभिर्विना ॥ ५७॥ . और कोईक रोग संकरपनसे अन्यभावको प्राप्त होजाता है, ऐसे तीन तीन प्रकारकी व्याधि मानी है; वातआदि दोषोंको लघुरूक्षआदि निदान है तिसकरके कुपित हुये दोषोंकरके जो रोग उपजै वह दोषाख्य रोग कहाता है और निदान अर्थात् कारणोंके विना जो राग उपजै वह कर्मज रोग कहाता है ॥ १७॥ ..
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