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(१२८) . .... अष्टाङ्गहृदये
बवासीर-गुल्म-शाजा-विसर्प-बिद्रधि-कुष्ठ-उपजते हैं, ये सब बहिभाग अर्थात् बाह्य रोग कहाते हैं, महास्रोतोंवाला आमाशय और पक्काशयके आश्रयभूत शरीरके भीतर कोष्ट कहाता है ॥ ४५ ॥
तत्स्थानाच्छर्यतीसारकासश्वासोदरज्वराः॥
अन्तर्भागं च शोफाशेगुल्मवीसर्पविद्रधि ॥ ४६॥ तिसमें छर्दैि अतीसार-खांसी-श्वास-उदररोग-ज्वर-शोजा-बवासीर-गुल्म-विसर्प-विद्रधि, ये रोग उपजतेहैं, ये अंतर्भागमें आश्रित होनेसे अंतररोग कहातेहैं ॥ ४६ ॥
शिरोहृदयबस्त्यादिमाण्यस्थ्नां च सन्धयः॥
तन्निबद्धाः शिरास्नायुकण्डराद्याश्च मध्यमाः॥४७॥ शिर-हृदय-बस्ति आदि मर्म-अस्थियोंकी संधि है, तिन्होंमें बंधीहुई नाडी-नस-कंडरा--. आदि हैं अर्थात् धमनी कूर्चादि हैं ॥ १७ ॥
रोगमार्गः स्थितास्तत्र यक्ष्मपक्षवधार्दिताः ॥
मूर्धादिरोगाः सन्ध्यस्थित्रिकालग्रहादयः॥४८॥ यह रोगोंका मध्यम मार्ग है यहां राजयक्ष्मा-पक्षावात-अदित अर्थात् लकवा-शिररोग-वस्तिरोग हृदयरोग-संधिग्रह-अस्थिग्रह-त्रिकाह-संधिशूल-अस्थिशूल-त्रिकशूल-ये रोग उपजत हैं।। ४ ।।
स्रंसव्यासव्यधस्वापसादरुकतोदभेदनम् ॥
सङ्गाङ्गभङ्गसङ्कोचवर्तहर्षणतर्षणम् ॥ ४९ ॥ स्रंस अर्थात् ठोडीआदि संधिका भ्रंश-अंग प्रत्यंगआदिका विक्षेपण-व्यध अर्थात मुद्गर आदिकरके ताडनकी तरह ताडन-क्रियामें अचेतनपना-अंगोंकी शिथिलता-निरंतर शूल-तोद अर्थात् विच्छिन्न शूल-अंगकाविदारण-मूत्र विष्ठाआदिका बंधपना-जंघा आदि अंगोंका भंग-. नाडी आदिका संकोच-वर्त अर्थात् विष्ठा आदिका पिंडी करण-हर्षण अर्थात् रोमाका ऊवीभाव तर्षण अर्थात् तृषा ॥ ४९ ॥
कम्पपारुष्यसौषिर्यशोषस्पन्दनवेष्टनम् ॥
स्तम्भः कषायरसता वर्णः श्यावोऽरुणोऽपि वा॥ ५० ॥ कंप-कठोरपना--अस्थियोंका सौषिर्यपना-शोष-कछुक चलन-गात्रोंका ग्रंथनपना- स्तंभकषाय रसका स्वाद -धूम्र अथवा रक्तवर्ण ॥ ५० ॥
कर्माणि वायोः पित्तस्य दाहरागोष्मपाकिताः ॥
स्वेदः क्लेदः श्रुतिः कोथः सदनं मूर्च्छनं मदः॥५१॥ ये सब कर्म वायुके हैं और दाह-राग-गरमाई-पाकपना-पसीना-क्लेद-नाव-कोथ अर्थात क्लेदका अतिशयपना-शिथिलपना-मूर्छा-मद ॥ ११ ॥
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