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(१०६)
, अष्टाङ्गहृदयेगेहूं है वह मधुर रसकरके उपदिष्ट किये वातजितुपनेको करता है और पूर्वोक्त गुणोंवाला वातको करता है अर्थात् संयोगसे अनेकभेदोंको प्राप्तहोजाते हैं ॥ २७ ॥ २८ ॥
उष्णा मत्स्याः पयः शीतं कटुः सिंहो न सूकरः॥ २९॥ स्वादु रस करके संयुक्त और गुरुगुणकरके युक्त मठलीका मांस गरम है विचित्र प्रत्ययके आरंभसे और स्वादु रससे संयुक्त और गुरुगुणसे युक्त दूध शीतल है और स्वादु रस और गुणसे युक्त सिंहका मांस कटु विपाकवाला है और स्वादु रस तथा गुरुगुण करके संयुक्त सूकरका मांस मधुर विपाकवाला है ॥ २९॥ इति वेरीनिवासिपंडितवैद्यरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
सूत्रस्थाने नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
दशमोऽध्यायः।
अथातो रसभेदीयमध्यायं व्याख्यास्यामः। इसके अनन्तर रसभेदीयनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे । क्ष्माम्भोऽग्निक्ष्माम्बुतेजःखवाय्वग्न्यनिलगोऽनिलैः॥
द्वयोल्बणैः क्रमाद्भूतैर्मधुरादिरसोद्भवः ॥१॥ पृथ्वी और जलके अधिकपनेसे मधुर रस उपजता है, पृथ्वी और अग्निकी अधिकतासे अम्ल रस उपजता है, जल और अग्निकी अधिकतासे लवण रस उपजता है, आकाश और वायुकी अधिकतासे तिक्त रस उपजता है, अग्नि और वायुकी अधिकतासे कटुक रस उपजता है, पृथ्व और वायुकी अधिकतासे कसैला रस उपजता है ॥ १ ॥
तेषां विद्याद्रसं स्वादु यो वक्रमनुलिम्पति ॥
आस्वाद्यमानो देहस्य ह्लादनोऽक्षप्रसादनः॥२॥ तिन रसोंमें स्वादु रसको जाने, जो अस्वाबमान होकर मुखमें लेपको उपजावै और देहको आनंदित करे और इंद्रियोंको प्रसन्न करै ॥ २ ॥
प्रियः पिपीलिकादीनामम्लः क्षालयते मुखम् ॥
हर्षणो रोमदन्तानामक्षिVवनिकोचनः॥३॥ पिपीलिका आदि अर्थात् कीडी आदि जीवोंको प्रिय लगै, वह स्वादु रस कहाताहै, और जो मुखको स्त्रावित करै रोम और दंतोंको हर्षित करे, नेत्र और भ्रुकुटियोंको निकोचित करै वह मभम्लरस कहाता है ॥ ३॥
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