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(९६)
अष्टाङ्गहृदयेचिकित्सा करे, और अनुबंध होवे तो हेतुविपर्यायको त्यागकर कुशलवैद्य यथायोग्य रोग दूर, करनेका प्रयत्नकरै ॥ २३ ॥
तदर्थकारि वा पक्के दोषे विद्धे च पावके ॥
हितमभ्यञ्जनस्नेहपानवस्त्यादि युक्तितः॥२४॥ और तदर्थकारी अर्थात् निदान व्याधिका नष्ट करना असाध्य विचार रोगकी शान्ति विचार जैसे मदात्ययमें मदिरापान, और अतिसारमें विरेचन, ऐसे प्रयुक्त करना हित है, और पकरूप दोपमें और प्रकाशितरूप अग्निमें अभ्यंग स्नेहपान बस्तिकर्म ये सब मात्राके अनुसार प्रयुक्त करै ॥ २४ ॥
अजीर्णं च कफादामं तत्र शोफोऽक्षिगण्डयोः ॥
सद्यो भुक्त इवोद्वारः प्रसेकोक्लेशगौरवम् ॥ २५॥ कफसे आम जर्णि होता है नेत्र और कपोलों में शोजा और तत्काल भोजन किय भोजनकी तरह डकार और थूकना दोषोंका स्थानसे चलना शरीरका भारीपन इन्होंकी उत्पत्ति हो जाती है॥ २५ ॥
विष्टब्धमनिलाठूलविवन्धाध्मानसादकृत् ॥
पित्ताद्विदग्धं तृण्मोहभ्रमाम्लोगारदाहवत् ॥ २६ ॥ . वायुसे विष्टब्ध अजीर्ण होता है उसमें विवंध शूल अफारा शिथिलता उपजती है पित्तसे विदग्ध अजीर्ण होता है, तृषा मोह भ्रम खट्टी डकार दाह उपजते हैं ॥ २६ ॥
लङ्घनं कार्यमा विष्टब्धे स्वेदनं भृशम् ।।
विदग्धे वमनं यद्वा यथावस्थं हितं भवेत् ॥ २७॥ आमाजीर्णमें लंघन करना योग्य है, और विष्टब्धाजीर्णमें अतिस्वेदन हितहै और विदग्धाजीर्ण में वमन हित है, अथवा लंधन स्वेदन वमनको दोषोंकी अधिकताके अनुसार प्रयुक्त करै ।। २७॥
गरीयसो भवेल्लीनादामादेव विलम्बिका ॥
कफवातानुबद्धामलिङ्गा तत्समसाधना ॥ २८ ॥ स्रोतोंमें अति मिला और बढाहुआ आम अर्थात् अजीर्णसे कफ और वातसे अनुबद्धहो आमके लक्षणोंवाली, और आमके समान साधनसे संयुक्त विलंबिका उपजती है ।। २८ ॥
_अश्रद्धाहृव्यथा शुद्धेऽप्युद्गारे रसशेषतः॥
शयीत किश्चिदेवात्र सर्वश्चानाशितो दिवा ॥ २९ ॥ ' रसशेष अर्णिमें अश्रद्धा हृदयमें पीडा होती है और इस रसशेष अर्णिमें जो शुद्धरूपभी डकार मान अनबभी मनुष्यको शयन करवावै और दिनमें भोजन करवावै नहीं ॥ २९ ॥
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