________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (९७) स्वप्यादजीर्णी सञ्जातबुभुक्षोऽद्यान्मितं लघु ॥
विवन्धोऽतिप्रवृत्तिर्वा ग्लानिर्भारुतमूढता ॥३०॥ अजीर्णवाला मनुष्य शयन करै और मूंख लगने प्रमाणित और हलका ऐसे भोजनको खाव और मूत्र तथा विष्टाका विबंध और अतिप्रवृत्ति होवै भीर ग्लानिहो और वायुकी प्रतिलोमता होवे ॥ ३० ॥
अजीर्णलिङ्गं सामान्यं विष्टम्भो गौरवं भ्रमः॥
न चातिमात्रमेवान्नमामदोषाय केवलम् ॥३१॥ __ और विष्टंभ-शरीरका भारीपन-भ्रम-येभी उपजै तब सामान्य अर्णिके लक्षण जानो और अतिमात्र भोजन किया अन्नहीं केवल आमदोषके अर्थ नहीं है ॥ ३१ ॥
द्विष्टविष्टम्भिदग्धामगुरुरूक्षहिमाशुचि ॥
विदाहि शुष्कमत्यम्बुप्लुतं वान्नं न जीर्यति ॥३२॥ किंतु अप्रिय-विष्टंभि-दग्ध-कच्चा-भारी-रूखा-शीतल-अपवित्र-विदाही-सूखा और अतिपानीकरके प्लावित ऐसा अन्न नहीं जरता है ॥ ३२ ॥
उपतप्तेन भुक्तं च शोकक्रोधक्षुधादिभिः ॥
मिश्रं पथ्यमपथ्यं च भुक्तं समशनं मतम् ॥ ३३॥ क्रोध-शोक-क्षुधा इन आदिकरके तप्तहुये मनुष्यने भोजन किया अन्नभी नहीं जरता है और पध्य अर्थात् शलिआदि और अपथ्य अर्थात् यव आदि इन दोनोंको मिला भोजन करनेको समशन कहते हैं ॥ ३३॥
विद्यादध्यशनं भूयो भुक्तस्योपरि भोजनम् ॥
अकाले बहु चाल्पं वा भुक्तं तु विषमाशनम् ॥ ३४॥ भोजनके ऊपर फिर भोजनकरनेको अध्यशन कहते हैं अकालमें बहुत अथवा अल्प भोजन किया विषमाशन कहाता है ॥ ३४ ॥
त्रीण्यप्येतानि मृत्यु वा घोरान् व्याधीन्सृजन्ति वा॥
काले सात्म्यं शुचि हितं स्निग्धोष्णं लघु तन्मनाः॥३५॥ ये तीनोतरहके भोजन मृत्युको अथवा घोरव्याधियोंको रचते हैं और समयमें प्रकृतिके माफिक. और पवित्र और हित और चिकना गरम और हलकेसे भोजनको भोजनकी इच्छाकरनेवाला ॥३५॥
षड्रसं मधुरप्रायं नातिद्रुतविलम्बितम् ॥
स्नातः क्षुद्वान्विविक्तस्थो धौतपादकराननः॥३६ ॥ मानको किये क्षुधासे युक्त एकांतस्थानमें स्थित, हाथ-पैर-मुख धोकर छः रसोंसे संय
For Private and Personal Use Only