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___ सूत्रस्थानं भाषाटीकासमतम् । , हीन मात्रासे संयुक्त भोजन बल वृद्धि पराक्रमके अर्थ नहीं होता है और सब वातरोगोंकी हेतुताको प्राप्त होता है अर्थात् बहुत न्यूनभी भोजन न करै ॥ ३ ॥
अतिमात्रं पुनः सर्वानाशु दोषान् प्रकोपयेत् ॥
पीड्यमाना हि वाताद्या युगपत्तेन कोपिताः॥ ४॥ अतिमात्रावाला भोजन किया जावै तो फिर दोषोंको प्रकोषित करता है, और तिस अपक्लरूप भोजन करके पीड्यमान और एक कालमें उससे कोपित हुये वात आदि रोग ॥ ४ ॥
आमेनान्नेन दुष्टेन तदेवाविश्य कुर्वते ॥
विष्टम्भयन्तोऽलसकं च्यावयन्तो विषूचिकाम् ॥ ५॥ कचे और दुष्ट अन्नमें प्रवेशित हो दोष शरीरके स्रोतोंको रोकतेहैं उससे आलस्य होताहै के दोष अन्नको ऊपर नीचे बैंचते हैं, और विपूचिकाको उत्पन्न करतेहैं ॥ ५ ॥
अधरोत्तरमार्गाभ्यां सहसैवाजितात्मनः॥
प्रयाति नोज़ नाधस्तादाहारो न च पच्यते ॥ ६३ ___ अर्थात् अजित आत्मावाले मनुष्यके अनुचित देशकालमें अधर उत्तर मार्गोकरके निकालते हुये विचिका अर्थात् हैजेको करतेहै और वह भोजन मुख करके ऊपरको नहीं निकलता और नीचेको गुदाके द्वारा नहीं निकलता और पाकको प्राप्त नहीं होता ॥ ६ ॥
आमाशयेऽलसीभूतस्तेन सोऽलसकः स्मृतः॥ विविधर्वेदनोद्भेदैर्वाय्वादिभृशकोपतः ॥७॥ और आमाशयमें अलसीभूत होकर स्थित रहता है तिसकरके यह अलसक कहाता है, वायु आदिके अतिक पसे अनेक प्रकारके पीडा और उद्भदों करके ॥ ७ ॥
सूचीभिरिव गात्राणि विध्यतीति विचिका ॥
तत्र शूलभ्रमानाहकम्पस्तम्भादयोऽनिलात् ॥ ८॥ सूईयोंकी तरह अंगोंको वेधित करै तिसको विषूचिका कहते हैं तहां वातकी अधिकतासे शूल भम–अफारा-कंप-स्तंभ आदि रोग उपजते हैं ॥ ८ ॥
पित्ताज्ज्वरतिसारान्तर्दाहतृटप्रलयादयः॥
कफाच्छZङ्गगुरुतावाक्संगष्ठीवनादयः ॥९॥ पित्तकी अधिकतासे ज्वर-अतिसार-अंतर्दाह-तृषा-मूर्छा-आदि रोग उपजतेहैं । कफसे छर्दि-अंगका भारीपन-वाणीका ष्ठीवन-छोकरोग-आदि रोग उपजते हैं ॥९॥
विशेषादुर्बलस्याल्पवढेवेगविधारिणः ॥ पीडितं मारुतेनान्नं श्लेष्मणा रुद्धमन्तरा ॥१०॥
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