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प्रस्तावना
२९ भी उस समय जब वे लगभग बीस वर्षके थे और विद्याभ्यास चल रहा था, विवाह नहीं हुआ था और जब वे जैनधर्म में दीक्षित हो गये तथा जैनसाधु बन गये तब उनके विवाह होनेका प्रसङ्ग ही नहीं आता । अतः यदि यह कल्पना ठीक हो तो कहना होगा कि विद्यानन्दने गहस्थाश्रममें प्रवेश नहीं किया और वे जीवन पर्यन्त अखण्ड ब्रह्मचारी रहे।
यहाँ कहा जा सकता है कि विद्यानन्दने जिस तीक्ष्णतासे वैशेषिक आदि वैदिक दर्शनोंका निरसन किया है और जैनदर्शनका बारीकी तथा मर्मज्ञतासे समर्थन किया है उससे यह जान पड़ता है कि विद्यानन्द वैदिक ब्राह्मण न होंगे, जैनकुलोत्पन्न होंगे ? इसका समाधान यह है कि यदि नागार्जुन, असङ्ग, वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीत्ति आदि बौद्ध विद्वान वैदिक ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न होकर कट्टरता और तीक्ष्णतासे वैशेषिक आदि वैदिक दर्शनोंके मन्तव्योंका खण्डन और बौद्धदर्शनका अत्यन्त सक्ष्मतासे समर्थन कर सकते हैं, तथा इसी तरह यदि सिद्धसेन दिवाकर प्रभृति विद्वान् ब्राह्मणकूलमें पैदा होकर तीक्ष्णतासे ब्राह्मण दर्शनोंकी मान्यताओंकी आलोचना और जैनदर्शनका सूक्ष्मतासे प्रतिपादन कर सकते हैं तो विद्यानन्दके ब्राह्मणकुलोत्पन्न होकर ब्राह्मणदर्शनोंका निरसन करने और जैनदर्शनका सूक्ष्म विवेचन एवं समर्थन करने में कोई आश्चर्य अथवा सन्देहकी बात नहीं है। यह तो विश्वासपरिवर्तनकी चीज है, जो प्रत्येक विचारवान् व्यक्तिको सम्प्राप्त हो सकती है। दूसरे, 'विद्यानन्द' नामपरसे भी ज्ञात होता है कि उन्हें ब्राह्मण होना चाहिये, क्योंकि ऐसा नामकरण अक्सर .राह्मणों विशेषतया वेदान्तियोंमें होता है। आजकल भी प्रायः उन्हींमें विवेकानन्द, विद्यानन्द जैसे नाम पाये जाते हैं जब कि जैनोंमें उनका अभाव-सा है। मुनिजीवन और जैनाचारपरिपालन तथा आचार्यपद ___ विद्यानन्दके मुनिजीवनपर भी एक दृष्टि डाल लेना चाहिये । जान पड़ता है, सूक्ष्मविवेकी विद्यानन्द जैन-मुनि हो जानेके बाद लगातार कई वर्षों ( कम-से-कम चार-पाँच वर्ष ) तक जैन-मुनिचर्या और जैनतत्त्वज्ञानके आकण्ठपान अभ्यासमें लगे रहे और यह ठीक भी है क्योंकि पहलेके संस्कारोंको एकदम परिवर्तित करना और जैनसाधुकी कठिनतम चर्याको निर्दोष शास्त्रविहित पालन करना नवदीक्षितके लिये पहले-पहल बड़ा कठिन प्रतीत होता है। अतएव यदि वे अपने दार्शनिक ग्रन्थोंके रचना
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