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आगम-शोध कार्य : एक पर्यवेक्षण
और पाठक मूल-भाव से भटक-सा जाता है, इसलिए हमने मूलस्पर्शी अनुवाद को प्रधानता दी है।
प्राकृत का संस्कृत में रूपान्तरण करते समय अत्यधिक सतर्कता की आवश्यकता होती है। क्योंकि आगम के उपलब्ध अनेक संस्करणों में संस्कृत छाया का आधार प्रधानतः टीका रही है । परन्तु बात यह है कि टीकाकार प्रत्येक शब्द की व्याख्या देते हैं, छाया नहीं । कहीं-कहीं व्याख्या को ही मूल छाया मान लेने से भयंकर भूलें हुई हैं और कभी-कभी उन व्याख्याओं के आधार पर मूल शब्द को भी परिवर्तित कर दिया जाता है। मुद्रित प्रतियों के एक नहीं अनेक स्थल इसके साक्षी हैं । ऐसी स्थिति में प्राकृत शब्दों की ही मूल प्रकृति, अर्थ की संगति आदि-आदि को ध्यान में रखकर उनका संस्कृत रूपान्तरण किया जाए तो मैं मानता हूं, शब्दों के साथ न्याय हो
सकता है
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दशवैकालिक (सानुवाद, सटिप्पण) छप चुका है।
• उत्तराध्ययन (सानुवाद) छप रहा है ।
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• स्थानांग, समवायांग, उपासकदशा, नन्दी, निरयावलिका आदिआदि सूत्रों के अनुवाद तैयार हैं ।
वर्तमान में विभिन्न आगमों पर निम्नोक्त कार्य हो रहा है
१. औपपातिक (छाया) – मुनिश्री चन्दनमलजी ।
२. स्थानांग (छाया) – मुनिश्री दुलीचंदजी |
३. उपासकदशा (छाया) - मुनि श्री गणेशमलजी ।
४. आचारांग (प्रथम) - ( छाया तथा अनुवाद) । ५. औपपातिक (अनुवाद) - साध्वीश्री संघमित्राजी । ६. अनुयोगद्वार (अनुवाद) - साध्वीश्री कनकप्रभाजी ।
७. अनुयोगद्वार (छाया) - साध्वीश्री यशोधराजी ।
८. आचारांग चूला (छाया) - साध्वीश्री जतनकुमारीजी ।
९. निशीथ (छाया) - साध्वीश्री जयश्रीजी ।
१०. समवायांग (छाया) - साध्वीश्री कनक श्रीजी ।