________________
आगम- सम्पादन कार्य : विद्वानों की दृष्टि में
विषय में भी संदेह नहीं, क्योंकि वे ऐसे हैं, जो काम उठाते हैं उसे निष्ठा के साथ पूरा करने में लग जाते हैं । उनकी यही विशेषता हमें कई बार प्रत्यक्ष हुई है । . . हम चाहते हैं आचार्यजी को अपने इस सत्प्रयत्न में पूरी सफलता मिले ।'
५७
आगम-संपादन के कार्य के विषय में विद्वानों की मिश्रित प्रतिक्रियाएं सामने आती रहीं। कुछ विद्वानों को तेरापंथ धर्मसंघ के कर्तृत्व का पूरा विश्वास था और कुछ विद्वान् सशंकित थे । सबसे पहले 'दसवेआलियं' (दशवैकालिक) सूत्र का कार्य सम्पन्न हुआ । उसमें सूत्र का सांगोपांग विवेचन किया गया था । आधुनिक वैज्ञानिक प्रणाली से संपादित और विवेचित उस सूत्र को देखकर विद्वानों की धारणाएं बदलीं और उन्होंने एक स्वर से उस कार्य की प्रशंसा की । शताधिक ग्रंथों के पारायण से लिखे गये उनके तुलनात्मक टिप्पणों को विद्वानों
बहुत मूल्यवान् बताया । उस आगम की प्राचीनतम अगस्त्यसिंह स्थविर कृत चूर्णि का हमने पहली बार उपयोग किया था । प्रज्ञाचक्षु पण्डित सुखलालजी ने उस आगम को देखा । उनकी धारणा बदली और उन्होंने कई बार आगमसंपादन की भूरि-भूरि प्रशंसा की ।
जैन विश्व भारती का प्रारंभ
सन् १९७० में तेरापंथी महासभा, कलकत्ता ने यह प्रस्ताव पारित किया कि लाडनूं में जैन विश्व भारती संस्थान का निर्माण हो । विचार-विमर्श हुआ और संस्थान मूर्त्त हो गया । सन् १९७४ में भगवान् महावीर की पचीसवीं निर्वाण शताब्दी पर जैन विश्व भारती से सुंदर संपादित आगम प्रकाशित हुए । इससे पूर्व सारे आगम-ग्रंथ तेरापंथी महासभा, कलकत्ता से प्रकाशित हो रहे थे। जैन विश्व भारती ने उस पुण्य अवसर पर अंगसुत्ताणि भाग - १,२,३ तथा ठाणं, दसवेआलियं (द्वितीय संस्करण), आयारो (लघु टिप्पणों के साथ) प्रकाशित किये। बीच में कुछ श्लथता भी आई। दक्षिण भारत की सुदीर्घ यात्रा भी इसमें कारणभूत बनी। उसके बाद केवल ग्यारह अंगों का शब्दकोश मात्र प्रकाश में आ सका । अब पुनः इस कार्य को गतिमान करने की बात सोची जा रही है। मुनिश्री नथमलजी (युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ) पहले से अधिक व्यस्त हुए हैं, अतः अब वे इसके लिए अधिक समय दे सकें, यह कम संभव लगने लगा है।