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दशवैकालिक का पांचवां अध्ययन : एक दृष्टि सुविधाओं के लिए प्रयुक्त किया गया हो।
वर्तमान आदर्शों में ६३वां श्लोक यों है-‘एवं उस्सक्किया, ओसक्किया, उज्जालिया, पज्जालिया, निव्वाविया। उस्सिंचिया निस्सिंचिया ओवत्तिया
ओयारिया दए'–परन्तु दोनों चूर्णिकार इससे सहमत नहीं हैं। प्रथम चूर्णिकार अगस्त्यसिंह मुनि के अनुसार इस स्थान पर स्वतंत्र रूप से नौ श्लोक हैं१. असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा।
अगिणिम्मि होज्ज निक्खित्तं तं च उस्सिक्किया दए । इसी प्रकार-२......तं च ओसक्किया दए
३. .....तं च उज्जालिया दए ४. .....तं च विज्झाविया दए
.....तं च उस्सिंचिया दए ६. .....तं च उकड्डिया दए ७. .....तं च निस्सिंचिया दए ८......तं च ओवत्तिया दए
९. .....तं च ओतारिता दए और 'उस्सिक्किया' के श्लोक में 'तं भवे.....देतियं पडियाइक्खे णिक्खित्ताधिकारिकमेव' ऐसा माना है।
दूसरे चूर्णिकार जिनदास महत्तर ने स्वतंत्ररूप से सात श्लोक माने हैं-उन्होंने 'ओसक्किया' और 'उस्सिंचिया' को स्वीकार नहीं किया है। प्रत्येक श्लोक के अन्त में 'दंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं' को माना है। ____टीकाकार हरिभद्रसूरि इसे एक ही श्लोक मानकर आगे चलते हैं। प्रचलित आदर्शों में 'होज्ज कटुं सिलं वा वि' को प्रथम उद्देशक का ६५वां श्लोक माना है। परन्तु अगस्त्यसिंह मुनि ने छटे श्लोक 'तम्हा तेण न गच्छेज्जा' के आगे ही 'चलं कटुं सिलं वा वि' को स्थान दिया है और दूसरी परम्परा का उल्लेख करते हुए लिखा है-'अयं केसिंचि सिलोगो उवरि भण्णिहिति' इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनके सामने कोई अन्य आदर्श अवश्य रहा है जिसको कि उन्होंने आधार माना है। अगस्त्यसिंह मुनि द्वारा माना गया यह क्रम-आधार संगति की दृष्टि से सही लगता है। इस क्रम-व्यत्यय का संकेत टीकाकार या चूर्णिकार जिनदास महत्तर ने नहीं दिया है।
इस प्रकार ६६वें और ६९वें श्लोक के प्रथम दो-दो चरण (अ. चू.) में