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आगमकालीन सभ्यता और संस्कृति
११३ आए दिन हम समाचारपत्रों में वृक्षों की विचित्र बातें पढ़ते हैं, आज उनसे हमें आश्चर्य होता है। रोने वाले वृक्ष, हंसने वाले वृक्ष, मांसाहारी वृक्ष, ध्वनि करने वाले वृक्ष, दूध देने वाले वृक्ष आदि-आदि के अस्तित्व से हमें यह मानना चाहिए कि ये वृक्ष भी संभवतः उसी परम्परा के हैं। आज भी जंगल में रहने वाली जातियां वृक्षों के पत्तों के वस्त्र पहनती हैं। उन्हीं के चित्र-विचित्र आभूषण बनाकर धारण करती हैं। उन्हीं के पत्र-पुष्प खाती हैं। संक्षेप में वृक्ष ही उनके एकमात्र आधार हैं। इस दशा में ये वृक्ष ही उनके लिए कल्पवृक्ष मनोवांछित पूर्ण करने वाले कहे जाते हैं।
उपरोक्त विवरण से आगम में वर्णित कल्पवृक्षों की यथार्थता प्रकट हो जाती है। यह मान्यता केवल काल्पनिक ही नहीं, बौद्धिक भी है, ऐसा ज्ञान हो जाता है। यह तभी संभव है जबकि हम यथार्थता को देखने का यत्न करते हैं या तविषयक इतिहास या पारिपार्श्विक उपकरणों की भी उपेक्षा नहीं करते। अतिरंजन वस्तुस्थिति पर आवरण डाल देता है। हम अतिरंजन को वस्तु के व्याख्यान में स्थान दें, परन्तु उसके आवरण को न भुला बैठे। आज के इस साधन-बहुल युग में केवल अनुश्रुति को ही अन्तिम प्रमाण मानकर सत्य की खोज का द्वार बन्द कर देना बुद्धिमत्ता नहीं है।
आज भी आगम-साहित्य में ऐसे बहुत-से तथ्य हैं जो कि प्रयोग के अभाव में लोगों की बुद्धि में नहीं समाते। आज आवश्यकता है कि जैन विद्वान् उनका अन्वेषण करें और यथार्थता को सामने रखने का प्रयास करें। इस प्रक्रिया से आगमों के प्रति अनास्था प्रवाह रुकेगा और लोग आगमों के प्रति विशेष आश्वस्त होंगे।
२८. आगमकालीन सभ्यता और संस्कृति ज्ञान अनन्त है, ज्ञेय भी अनन्त है। दोनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। ज्ञान की अनन्तता श्रेय के आनन्त्य को सूचित करती है और ज्ञेय की अनन्तता ज्ञान के आनन्त्य को बताती है। आत्मा अनन्त ज्ञानमय चेतना-पिण्ड है। यह उसका स्वाभाविक स्वरूप है। परन्तु जब वह कर्मबद्ध होती है, तब उसके आवरण की तरतमता से ज्ञान प्रगट होता है और उसी के अनुसार व्यक्ति ज्ञेय का परिच्छेद करता है।