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उत्तराध्ययन के तीन टीकाकार
१२३ का विशिष्ट संकलन हुआ है। इसी विशेषता के कारण पाश्चात्य विद्वान् इस ओर आकृष्ट हुए हैं। कथाओं का संकेत शान्त्याचार्य की टीकाओं में भी मिलता है, परन्तु वह केवल नाममात्र का है। कहीं-कहीं दो-तीन लाइनें और कहीं-कहीं एक-एक पृष्ठ की कथाएं हैं, जो वस्तुतः किसी भावना-विशेष को स्पष्ट नहीं करतीं। परन्तु नेमीचन्द्र की टीका में संगृहीत कथा-वस्तु विस्तृत
और रुचिपूर्ण है। महाराष्ट्रीय प्राकृत की सुललित शब्दावली में सन्दृब्ध ये कथाएं बेजोड़ हैं। ये कथाएं किसी प्राचीन सामग्री से संकलित की हों ऐसा उन्हीं के शब्दों से स्पष्ट प्रतीत होता है। स्वयं नेमीचन्द्र यह कहते हैं कि-'एतानि च चरितानि यथा पूर्व-प्रबन्धेषु दृष्टानि तथा लिखितानि।' ये (प्रत्येक बुद्ध के कथानक) जैसे पूर्व प्रबंधों में देखे हैं वैसे ही लिखे हैं। सरपेन्टियर' ने 'पूर्वप्रबन्धेषु' की मीमांसा की है और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि यद्यपि 'पूर्वप्रबन्धेषु' का परम्परागत अर्थ ज्ञात नहीं है, फिर भी ल्यूमेन का यह कथन है कि यह शब्द दृष्टिवाद के किसी अंश का द्योतक है। सर्वप्रथम इन कथाओं का परिचय डॉ. हर्मन जेकोबी ने अपनी कृति Ausgewahete Cargah Nugen in Maharastri में किया जो कि ई. १८८६ में प्रकाशित हुई थी। ये जर्मन भाषा में लिखी गई थीं। यही कथाएं १९०९ में ले. जे. मेयर द्वारा Hindu Tailes में अंग्रेजी भाषा में अनूदित हुई थी, जिसमें कि विद्वतापूर्ण टिप्पणियां भी थीं। अन्यान्य विद्वानों ने भी इन कथाओं का उपयोग किया है।
सरपेन्टियर ने नेमीचन्द्र की टीका को मुख्य मानकर पाठ निर्धारण किया है और टिप्पणियां लिखी हैं। उनका यह तर्क है कि इस कृति में पाठान्तरों का झमेला नहीं है, अतः पाठक व अन्वेषक विद्यार्थी को सुविधा मिलती है। इसमें मूल शब्दों का अर्थ अत्यन्त संक्षिप्त और सारगर्भित है। बीच-बीच में दशवैकालिक सूत्र के उद्धरण तथा अन्यान्य ग्रन्थों के श्लोक, गाथाएं आदि भी उद्धृत किये हैं। अन्यान्य विषयों के विस्तार की अपेक्षा से यह शान्त्यासूरि की टीका से बढ़-चढ़कर है। इसका सोदाहरण उल्लेख पिछले पृष्ठों में किया गया है।
___ एक बात समझ में नहीं आती कि दोनों टीकाकार अपनी टीका लिखने के क्रम का निर्वाह क्यों नहीं करते। प्रथम कई अध्ययनों की टीका विस्तृत है
१. दी उत्तराध्ययन, भूमिका, पृ. १६, बाई सरपेन्टियर ।