Book Title: Agam Sampadan Ki Yatra
Author(s): Dulahrajmuni, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 148
________________ उत्तराध्ययनगत देश, नगर और ग्रामों का परिचय १३५ श्रावस्ती राप्ती (अचिरावती) नदी के किनारे स्थित थी। आवश्यकचूर्णि (पृ. ६०१) के अनुसार वह नगरी नदी के भयंकर बाढ़ से बह गई थी। बाढ़ आने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-'कुणाला में कुरुण्ट और उत्कुरुण्ट नाम के दो आचार्य नालियों के मुहानों पर रहते थे। एक बार नागरिकों ने उन्हें स्थान-च्युत कर दिया। क्रोधावेश में श्राप देते हुए आचार्य कुरुण्ट ने कहा-'हे देव! कुणाला पर बरसो।' आचार्य उत्कुरुण्ट ने कहा- पन्द्रह दिन तक।' कुरुण्ट ने पुनः कहा-'रात और दिन ।' दोनों आचार्य नगर छोड़कर चले गए। श्राप के फलस्वरूप पन्द्रह दिन तक घनघोर वर्षा हुई। कुणाल जनपद बह गया। श्रावस्ती नगरी का तहस-नहस हो गया। कहा जाता है कि श्रावस्ती के महासेट्ठि सुदत्त के अठारह करोड़ रुपये अचिरावती नदी के किनारे गड़े हुए थे। बाढ़ के कारण सारा खजाना बह गया। भगवान् महावीर ने दसवां वर्षावास यहां बिताया था। उत्पाटित तिल के पौधे को पुनः उगा हुआ देखकर गोशाला नियतिवादी हो गया। वह भगवान् से अलग हो श्रावस्ती में एक कुम्हार की शाला में ठहरा और भगवान् महावीर द्वारा निर्दिष्ट विधि से तेजोलेश्या की प्राप्ति के लिए साधना करने लगा। छह महीने की साधना से उसे तेजोलब्धि की प्राप्ति हो गई। उसके प्रत्यय के लिए उसने एक घट-दासी पर उसका प्रयोग किया। वह तत्काल जल कर भस्म हो गई। उसे अपनी लब्धि की प्रामाणिकता पर विश्वास हो गया। गोशाला के चले जाने पर भगवान् अकेले ही वैशाली पहुंचे। वहां से वाणिज्यग्राम जाते हुए नावा से गण्डकी नदी पार की। वाणिज्यग्राम में आनन्द नामक श्रमणोपासक, जो बेले-बेले की तपस्या करता था, को अवधिज्ञान प्राप्त हुआ। उसने भगवान् के दर्शन किए। वहां से प्रस्थान कर भगवान् श्रावस्ती पहुंचे और वहां दसवां वर्षावास बिताया। वहां विचित्र प्रकार की तपस्या की। चतुर्मास पूर्ण होने पर भगवान् ‘सानुलट्ठिग्राम' में गए और वहां भद्रप्रतिमा, महाभद्रप्रतिमा और सर्वतोभद्रप्रतिमा का अनुष्ठान किया। एक बार भगवान् महावीर पृष्ठचम्पा में कुछ समय तक आवास कर (कई १. Sravasti in Ancient literature p. 31, by vimalcharan law. २. Barliagama Buddhist legends, vol. 2, p. 268. ३. आव. वृ. मलयगिरि पत्र २८७। ४. आव. नियुक्ति गाथा ४९५ वृत्तिपत्र २८७-८८ ।

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