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उत्तराध्ययन और परीषह
१४७ जो मुनि सकल शास्त्रों में मैं शून्य हूं-ऐसा सोच खेद नहीं करता, वह अज्ञानपरीषह पर विजय पा लेता है। २२. दर्शन-परीषह
मुनि दर्शन के परिषह को समभाव से सहे । अपनी दृष्टि को सम्यक् बनाए
रखे।
मुनि ऐसा न सोचे कि ‘परलोक नहीं है, तपस्वी की ऋद्धि भी नहीं है। मैं ठगा गया हूं। जिन हुए थे, जिन हैं, अथवा जिन होंगे-ऐसा जो कहते हैं वे झूठ बोलते हैं।' क्रियावादियों के विचित्र मत को सुन कर भी जो सम्यग्दर्शन से विचलित नहीं होता, जो आत्मा-परलोक आदि की विचारणा में मूढ़ नहीं होता, वह दर्शनपरीषह पर विजय पा लेता है।
तत्त्वार्थ सूत्र (९।९) में 'अचेल' के स्थान पर 'नाग्न्य' परीषह का उल्लेख है। समवायांग (समवाय २२) में अन्तिम तीन परीषहों का क्रम उत्तराध्ययन से भिन्न हैउत्तराध्ययन
समवायांग १. प्रज्ञा
१. ज्ञान २. अज्ञान
२. दर्शन ३. दर्शन
३. प्रज्ञा अभयदेवसूरि ने समवायांग की वृत्ति में अज्ञान-परीषह का क्वचित् श्रुति के रूप में उल्लेख किया है।
तत्त्वार्थ सूत्र (९।९) में दर्शन परीषह के स्थान पर अदर्शन-परीषह माना गया है और प्रवचनसारोद्धार (गाथा ६८६) में सम्यक्त्व-परीषह।
दर्शन और सम्यक्त्व यह केवल शब्द-भेद है। अचेल और नान्य में थोड़ा अर्थ-भेद भी है। अचेल का अर्थ है
१. नग्नता। २. फटे हुए या अल्प मूल्यवाले वस्त्र ।
तत्त्वार्थ सूत्र सागरीयवृत्ति में प्रज्ञा-परीषह और अदर्शन परीषह की १. ज्ञानसामान्येन मत्यादि, क्वचिदऽज्ञानमिति श्रूयते। २. चेलस्य अभावो अचेलम्-प्रवचनसारोद्धार, वृत्तिपत्र १९३।