Book Title: Agam Sampadan Ki Yatra
Author(s): Dulahrajmuni, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 185
________________ १७२ आगम-सम्पादन की यात्रा एक सांड उसमें घुसा। इतने में ही रथकार वहां आ पहुंचा। उसने अपावृत घर और सांड को देखा। उनकी पत्नी भी आ गई। रथकार ने पत्नी का अपराध समझकर उसे पीटा। पत्नी ने सोचा-इन दिनों मैंने और अनेक अपराध किए हैं। यदि मेरे पति को सारे ज्ञात होंगे तो वह मुझे बार-बार पीटेगा। अच्छा हो मैं सारे अपराध प्रकट कर दूं। उसने कहा 'बछड़ा गाय का स्तनपान कर गया है, आप द्वारा लाया गया कांस्य भाजन भी टूट गया। आपका वस्त्र भी कोई चुराकर ले गया आप मुझे जितना पीटना चाहें उतना पीट लें।' इतना सुनकर रथकार ने उसे एक ही बार में खूब पीटा। इसी प्रकार अनेक अपराधों के लिए एक प्रायश्चित भी हो सकता है। एक चोर था। उसने अनेक बार चोरियां की किसी के बर्तन चुराए, किसी के वस्त्र, किसी के सिक्के और किसी का सोना। एक बार उसने राजमहल में सेंध लगाई और रत्न चुराकर बाहर निकला। आरक्षकों ने पकड़कर उसे राजा के समक्ष उपस्थित किया। दूसरे लोगों ने भी उस पर चोरी का आरोप लगाए। राजा ने सोचा, इसने राजमहल से रत्न चुराए हैं। यह चोरी गुरुतर है। राजा ने दूसरी सारी चोरियों की उपेक्षा कर इस गुरुतर चोरी के लिए उसे मृत्युदंड दिया। इसी प्रकार अनेक छिटपुट अपराधों की उपेक्षा कर गुरुतर अपराध को मुख्य मानकर प्रायश्चित दिया जा सकता है। आचार्य ने कहा-'शिष्य! कभी-कभी विशेष प्रयोजनवश अपराधों को क्षमा भी करना पड़ता है। एक गण है। आचार्य ग्लान हो गए। जो आचार्य बनने योग्य है, उसे अनेकविध प्रायश्चित प्राप्त हैं और वह उन्हें वहन कर रहा है। ऐसी स्थिति में उसके प्रायश्चितों को क्षमा कर उसे आचार्य पद दिया जाता है। ‘एक नगर का राजा मर गया। उसके कोई पुत्र नहीं था। राज्य-चिन्तकों ने देवपूजन कर एक हाथी और एक घोड़े को सजाया और दोनों को नगर में छोड़ दिया। उसी नगर में उसी दिन मूलदेव नाम का एक व्यक्ति चोरी करते पकड़ा गया। आरक्षकों ने उसे मृत्युदंड दिया और वध्य मानकर उसे नगर में घुमाने लगे। उसके साथ अठारह व्यक्ति थे। हाथी और घोड़े दोनों घूमते-घूमते

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