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अथवा चर्म, वसा और शोणित- ये तीनों भी विगय में हैं ।
अवगाहिम विगय की विधि यह है - जिस तेल या घृत में एक पदार्थ तला जाता है, फिर उसी तेल या घृत में दूसरे पदार्थ तले जाते हैं, फिर उसी तेल में अन्य दूसरे पदार्थ तले जाते हैं तब तक वह विगय है । जब उसी तेल या घृत में चौथी बार पदार्थ तले जाते हैं तब उन्हें निर्विगय में माना गया है।
आगम- सम्पादन की यात्रा
इसी प्रकार खीर को भी विगय और निर्विगय दोनों माना है । जिस खीर में चावलों के ऊपर चार अंगुल दूध चढ़ा रहता है तब तक वह निर्विगय है और यदि उन पर पांच अंगुल या और अधिक दूध चढ़ा होता है तो वह विगय में है । इसी प्रकार दही में जमाए- पकाए गए पदार्थों के लिए भी है ।
द्रव गुड़ में पकाई गई वस्तु पर यदि एक अंगुल गुड़ चढ़ा हुआ है तो वह विगय में नहीं है, अन्यथा विगय में है । इसी प्रकार तेल और घृत के पदार्थों को भी जानना चाहिए । मधु या मांस के रस से संसृष्ट पदार्थ विगय तभी हैं जबकि उन पर आधे अंगुल से ज्यादा रस चढ़ा हुआ हो अन्यथा वे निर्विगय हैं । यह प्राचीन परम्परा टीकाकारों के समय तक प्रचलित रही है और आज भी जैन परम्परा में इनके आस-पास की मान्यताएं मिलती हैं । भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में इसके भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं और वे सारे स्वरूप अपनी-अपनी रूढ़ परम्पराओं के आधार पर निर्धारित किए गए हैं ।
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विकृति और विकृतिगत में अन्तर माना गया है । विकृतियां दस हैं, किन्तु विकृतिगत तीस हैं। जिनके विगय का प्रत्याख्यान होता था वे विकृतिगत का उपयोग करते थे । विकृतिगत का अर्थ है - मूल विकृति नहीं, किन्तु विकृति के आश्रित ।
दूध के पांच विकृतिगत हैं - १. दूध की कांजी, २ मावा, वली, मलाई, ३. द्राक्षाओं से मिश्रित दूध, जो उबाला गया हो, ४. जिस दूध में चावलों का आटा सिजाया गया हो ५. खीर ।
दही के पांच विकृतियां हैं
१. घोल बड़ा ।
२. वस्त्र से छाना हुआ दही । ३. शिखरणी ।