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आगम-सम्पादन की यात्रा
४. घी से लिप्त कड़ाही में जल डालकर पकाई हुई लापसी। ५. घृत से लिप्त कड़ाही में पकाई हुई पूड़ी।
ये विकृतिगत पदार्थ का प्रत्याख्यान रखने वाले भी खाते थे तथा जो योगवाद न करते थे, उनके लिए भी यह निषिद्ध नहीं था। यह प्राचीन परम्परा की बात है, आज की परम्परा में काफी मतभेद है। प्रायः इन सब विकृतिगत पदार्थों को मूल विगय माना जाता है।
विकृति के विषय में यह संक्षिप्त विवरण प्रवचनसारोद्धार और आवश्यक-चूर्णि ग्रंथ के आधार पर है। परम्पराओं में परिवर्तन आता है और समय-समय पर उनकी नई मर्यादाएं परिभाषा में बनती रहती हैं। जैन आगमों में स्थान-स्थान पर विगय-चर्चा है और साधक को उसमें विवेक रखने का स्पष्ट संकेत है।
केवल भोजन ही या केवल मन ही दुर्बलताओं या विकृतियों का साधन बनता हो, यह एकान्ततः सत्य नहीं है। दोनों विकृति के कारण बनते हैं-'जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन' और 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः' ये दोनों लौकिक वाक्य अपनी-अपनी अपेक्षाओं में ही सत्य हैं। किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि भोजन का विवेक न रखना और मन को सत्संकल्पों से पूरित नहीं करना-दोनों फिसलने के हेतु हैं। अतः साधक को विशेष विवेक की आवश्यकता होती है।
३४. सूत्रकृतांग के आधार पर सभ्यता और संस्कृति देश-नगर आदि ___ इस सूत्र में मगध, लाट आदि देशों तथा सुवर्णभूमि (पत्र १९८), बनारस (पत्र २२६), राजगृह, नालन्दा (२७ सूत्र ६८), रत्नपुर (पत्र १६९), पाटलिपुत्र (पत्र १११) आदि नगरों का उल्लेख मिलता है। इन सबका विस्तृत वर्णन वहां उपलब्ध नहीं है, किन्तु विकीर्ण-स्थलों में उनके विषय में कुछ सामग्री अवश्य मिल जाती है। टीकाकार और नियुक्तिकार ने राजगृह और नालन्दा का कुछ वर्णन किया है