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सूत्रकृतांग के आधार पर सभ्यता और संस्कृति
१६५ चूर्णिकार ने इसे 'अयपथ'-लोहपथ माना है और ऐतिहासिक जानकारी देते हुए लिखा है कि यह सुवर्णभूमी (सुमात्रा) से यहां तक (?) बना हुआ था।
११. पक्षिमार्ग-यह आकाश मार्ग था। व्यक्ति भारुण्ड आदि पक्षियों पर यात्रा करते थे। यह सर्वसुलभ न भी रहा हो, परन्तु श्रीमन्त या मान्त्रिक विद्याओं में पारगामी लोग इन पक्षियों का उपयोग वाहन के रूप में करते हों, यह असंभव नहीं लगता। क्योंकि आज भी शतुर्मुर्ग का वाहन के रूप में उपयोग होता है। इसकी गति तीव्र होती है, यह भूमि पर दौड़ता है। उसी प्रकार भारुण्ड, हंस आदि पक्षियों पर सवारी कर आकाशमार्ग से गन्तव्य तक पहुंचना अत्युक्ति नहीं कही जा सकती। यह पाणिनि का 'हंसपथ', महानिद्देश का 'शकुनपथ' और कालीदास का 'खगपथ', 'घनपथ', 'सुरपथ' है।
१२. छत्रमार्ग-यह ऐसा मार्ग था जहां छत्र के बिना आना-जाना निरापद नहीं होता था। संभव है जंगलों में हिंस्रपशुओं के भय से छत्ते रखकर ही उन्हें पार करना पड़ता हो। छत्तों को देखकर हिंस्रपशु डर जाते हैं-ऐसी धारणा रही हो।
१३. जलमार्ग-यानपात्र, नौका, जहाज आदि से आने-जाने का मार्ग। इसे 'वारिपथ' भी कहा गया है।
१४. आकाशपथ-विद्याधरों तथा मंत्रविदों के आने-जाने का मार्ग। इसे 'देवपथ' भी कहा है।
___ इनके अतिरिक्त पाणिनि ने अपनी व्याकरण में देवपथादि गण में वारिपथ, स्थलपथ, रथपथ, करिपथ, शंकुपथ, सिंहपथ, हंसपथ, देवपथ आदि-आदि का उल्लेख किया है।
१. चूर्णि, पृ. २४०। २. पक्षिमार्गो-भारुण्डादिपक्षिभिर्देशान्तरमवाप्यते-१।११ पत्र १९८ । ३. पाणिनिकालीन भारतवर्ष-पृ. २३५। ४. छत्रमार्गो यत्र छत्रमन्तरेण गन्तुं न शक्यते-१।११ वृ. पत्र १९८ । ५. जलमार्गो यत्र नावादिभिर्गम्यते-१।११ वृ. पत्र १९८। ६. पाणिनिकालीन भारतवर्ष-पृ. २३६।। ७. आकाशमार्गो विद्याधरादीनाम्-१।११ वृ. पत्र १९८ । ८. पाणिनिकालीन भारतवर्ष-पृ. २३५। ९. पाणिनिकालीन भारतवर्ष-पृ. २३५ ।