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आगम- सम्पादन की यात्रा
८. पाशमार्ग - चूर्णिकार के अनुसार यह वह मार्ग है जिसमें व्यक्ति अपनी कमर को रज्जु से बांध कर रज्जु के सहारे आगे बढ़ता था । 'रसकूपिका' (स्वर्ण आदि की खदान) में इसी के सहारे नीचे गहन अंधकार में उतरा जाता था और रज्जु के सहारे ही पुनः बाहर आना होता था |
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वृत्तिकार ने इसे मृगजाल आदि से युक्त मार्ग माना है, जिसका उपयोग शिकारी करते हैं।
९. कीलकमार्ग - ये वे मार्ग थे जहां स्थान-स्थान पर कीलें गाड़ी जाती थीं और पथिक उन कीलिकाओं के अभिज्ञान से अपने मार्ग पर बढ़ता जाता था। कीलिकाएं उसे मार्ग भूलने से बचाती थीं । ये विशेषतः मरुप्रदेशों में या जहां खानें अधिक होती थीं वैसे प्रदेशों में बनाए जाते थे ।
पाणिनि के व्याकरण में कात्यायन तथा महानिद्देश में 'शंकुपथ' का उल्लेख है। वह अत्यन्त कठिन पथ था। पहाड़ी मार्गों में जहां बीच में चट्टानें आ जाती थीं वहां शंकु अर्थात् लोहे की कीलें चट्टानों में ठोक कर चढ़ना पड़ता
था । ४
१०. अज' मार्ग- यह एक संकरा पथ होता था जिसमें केवल अज (बकरी) या बछड़े के चलने जितनी पगडंडी मात्र होती थी ।
अजपथ के विषय में बृहत्कथा श्लोकसंग्रह में लिखा है कि- 'यह रास्ता इतना कम चौड़ा होता था कि आमने सामने से आने वाले दो व्यक्ति एक साथ उस पर से नहीं निकल सकते थे। जिस मार्ग में केवल एक बकरी के चलने की गुंजाइश हो वह तंग रास्ता 'अजपथ' कहलाता था । ये विशेषतः पहाड़ी स्थानों में पाये जाते थे। आज भी पहाड़ों पर ऐसे पथ हैं, जहां बकरी और भेड़ों पर छोटे-छोटे थैलों में माल लादकर ले जाते हैं । इन्हें 'मेण्ढपथ' भी कहा जाता था । ६
१. रज्जुं वा कडिए बंधिऊण पच्छा रज्जुं अणुसरंति.... पासमग्गो - चूर्णि, पृ. १९४ । २. पाशप्रधानो मार्ग :- पाशमार्गः पाशकूटवागुरान्वितो मार्ग इत्यर्थः - वृ. पत्र १९८ । ३. खीलगेहिं रुमाविसए वालुगाभूमीए चक्कमंति..... अन्यथा पथभ्रंशः - चूर्णि, पृ.
१९४ ।
४. पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ. २३५ ।
५. अजमार्गो......गत इति - १ । ११ वृ. पत्र १९८ ।
६. पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ. २३५ ।