Book Title: Agam Sampadan Ki Yatra
Author(s): Dulahrajmuni, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 180
________________ सूत्रकृतांग के आधार पर सभ्यता और संस्कृति १६७ द्वारा होती थी। ये मार्ग सम और उपद्रव रहित होते थे। नगर के प्राकार के अंतराल में आठ हाथ चौड़ा मार्ग होता था। उसे 'चरिका' कहते थे। ___ पाणिनि ने एक विशेष सूत्र में 'उत्तरपथ' का उल्लेख किया है। उसका एक भाग उत्तर भारत में गन्धार से पाटलिपुत्र तक तथा दूसरा भाग गन्धार की राजधानी पुष्कलावती से चलकर तक्षशिला होता हुआ, मार्ग में सिन्धु-शतद्रु-यमुना पार करके, हस्तिनापुर-कान्यकुब्ज-प्रयाग को मिलाता हुआ पाटलिपुत्र तथा ताम्रलिप्ति को चला जाता था। इस मार्ग पर यात्रियों के ठहरने के लिए निषद्याएं, जल के लिए कूप और छायादार वृक्ष लगे हुए थे।'३ कई मार्ग अत्यन्त विषम और पत्थरों तथा ऊंटों से आकीर्ण होते थे। वे विषमोन्नत मार्ग यात्रा के लिए अत्यन्त दुःखप्रद होते थे। जगह-जगह गढ़े और नदी-नालों के कारण यातायात कठिन होता था।' एक देश से दूसरे देश में जाने के मार्ग निश्चित होते थे। वे मार्ग अत्यन्त विपुल, सीधे और प्रत्येक वाहन के लिए सुविधाजनक होते थे। यान-वाहन हाथी, घोड़े, ऊंट, गधे और बैल यातायात के मुख्य साधन थे। रथों में हाथी, घोड़े और बैले जोते जाते थे। ये तीन प्रकार के रथ यातायात में काम आते थे। श्रीमन्त व्यक्ति हाथी और घोड़ों के रथ पर चढ़कर आते जाते थे। सर्वसाधारण के लिए बैलों के रथ काम में आते थे। क्रीड़ा के लिए जाते समय इन रथों का विशेष उपयोग होता था। आज की भांति लोग पिकनिक (Picnic) के लिए उद्यानों में जाते थे। वैदिक साहित्य में रासभ-रथ तथा अश्वतरीय रथ, औष्ट्ररथ आदि का १. १११ वृ. पत्र १९८ । २. चरिका नगरप्राकारान्तरालेऽष्टहस्तप्रमाणो मार्गः-प्रश्नव्याकरणद्वार १, पत्र १३। ३. पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ. २३६ । ४. १।११ वृ. पत्र १९९ ५. देशाद् विवक्षितदेशान्तरप्राप्तिलक्षणः पन्थाः-१।११ वृ. पत्र १९९, २००। ६. हत्थस्सरहजाणेहिं.........१।३।२।१६।। ७. विहारगमणेहि य-(वृ.) उद्यानादौ क्रीडया गमनानीत्यर्थः-१।३।२।१६ वृ. पत्र ८८।

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