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सूत्रकृतांग के आधार पर सभ्यता और संस्कृति
१६३ लताएं उगतीं, वहीं ऐसे मार्ग का निमाण होता था। चारुदत्त नामक एक व्यक्ति ऐसे मार्ग से वेत्रलताओं का अवष्टम्भ ले वेत्रवती नदी को पार कर दूसरे किनारे पर पहुंचा था।
इन्हें 'वंशपथ' या 'वेत्राचार' भी कहा है। ये उन मार्गों के नाम हैं जहां नदी के एक किनारे पर लगे हुए लम्बे बांस या बेतों को झुकाकर उनकी सहायता से दूसरी ओर पहुंचा जा सके। अत्यन्त घने जंगलों में इस प्रकार के उपाय काम में लाये जाते थे। पालिमहानिदेश में इसे 'वेत्तचार पथ' कहा है।
___५. रज्जुमार्ग-अति दुर्गम-स्थानों में रस्सियों को अनेक स्थानों पर बांध कर मार्ग का निर्माण किया जाता था। संभव है कि इस मार्ग का निर्माण पर्वतीय स्थलों में होता था। व्यक्ति रस्सी के सहारे पर्वतों पर चढ़कर अधित्यका से उपत्यका में पहुंच कर अपने गन्तव्य स्थान को प्राप्त कर लेता था। आज भी पहाड़ी स्थानों में ऐसे मार्ग होते हैं।
६. दवनमार्ग-यान आदि के जाने-आने का मार्ग। दवन का अर्थ 'यान' है और उसके गमनागमन के मार्ग को ‘दवनमार्ग' कहा जाता है। इस पथ पर सभी प्रकार के ‘यान' आते जाते थे। आज की तरह ये मार्ग प्रत्येक नगर को जोड़ने वाले मुख्य सड़कों का काम करते थे। इन पर हाथी, घोड़े, बैल आदि के रथ सहजतया आ-जा सकते थे। ये बहुत चौड़े और सीधे होते थे। ये पाणिनी के स्थलपथ, रथपथ, करिपथ, राजपथ, सिंहपथ आदि हैं।
७. बिलमार्ग-सुरंगों से इधर-उधर आने-जाने के मार्ग। इन्हें 'मूषिक पथ' भी कहा है। ये पर्वतीय मार्ग थे, जिनमें चट्टानें काटकर चूहों के बिल जैसी छोटी-छोटी सुरंगें बनाई जाती थीं। जिनमें चौड़ी सुरंगें काटी जाती थीं, उन्हें 'दरीपथ' कहा जाता था। इनमें दीप लेकर प्रवश किया जाता था। १. वेत्रमार्गो यत्र.......परकूलं गतः १।११ वृ. प. १९८ । २. पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ. २३५ । ३. भाग १ पृ. १५४, १५५; भाग २ पृ. ४१४, ४१५। ४. रज्जुमार्गस्तु यत्र रज्ज्वा किञ्चिदति दुर्गमतिलंध्यते-१।११ वृ. पत्र १९८। ५. 'दवनं' ति यानं, तन्मार्गो दवनमार्गः १।११ वृ. पत्र १९८ । ६. पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ. २३५। ७. बिलमार्गो यत्र तु गुहाद्याकारेण बिलेन गम्यते-१।११ वृ. पत्र १९८ । ८. पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ. २३५। ९. बिलंदीवगेहिं पविसंति चू. पृ. २४० ।