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आगमों में विगयविवेक
विगय-प्रतिबद्ध साधक के विशिष्ट ज्ञान - दर्शन उत्पन्न नहीं होते । विशिष्ट लब्धियों से वह वंचित रहता है । अतः विगय का ज्ञान और उनके उपयोग का विवेक उसकी सफलता का पहला सोपान है। ठाणं सूत्र में विकृतियों को तीन भागों में बांटा है-—
१. गोरस विकृतियां ।
२. स्निग्ध विकृतियां ।
३. महा विकृतियां ।
दूध, दही, घी और मक्खन गोरस - विकृतियां हैं। तेल, घृत, वसा और नवनीत स्निग्ध-विकृतियां हैं और मधु, मांस, मद्य और नवनीत महा - विकृतियां हैं।
विकृतियों की संख्या भी सदा एक सी नहीं रही है । चुल्लकप्पसूत्र ( कल्पसूत्र की समाचारी) में नौ विकृतियों का उल्लेख है, उसमें मांस अन्तिम है । इस शब्द का अर्थ प्राण्यंगवाची न कर पक्वान्न किया गया है। ठाणं (९/ २३) में भी नौ विकृतियों का उल्लेख हुआ है। आवश्यक निर्युक्ति तथा हरिभद्रसूरि कृत पंचवस्तुक ग्रन्थ में विकृतियों की संख्या दस बताई गई है – दूध, दही, नवनीत, तेल, घृत, गुड़, मद्य, मधु, मांस और तले हुए पदार्थ । उस समय यह भी मान्यता थी कि सभी प्रकार के दूध, दही आदि विगय नहीं हैं, किन्तु अमुक-अमुक ही विगय की कोटि में आते हैं ।
गाय, भैंस, ऊंटनी, बकरी और भेड़ का दूध विगय में है, दूसरे दूध विगय में नहीं गिने जाते। इसी प्रकार ऊंटनी को छोड़कर बाकी के चार पशुओं के दही को विगय माना है । उष्ट्री ( ऊंटनी के दूध का दही नहीं जमता ।
तिल, अलसी, कुसुम, सरसों से निकाले हुए तेल विगय में हैं। नालिकेर, एरंड, शिंशप आदि के तेल विगय में नहीं हैं ।
गुड़ के दो भेद हैं- द्रव गुड़ और पिण्ड गुड़ । ये दोनों विकृति हैं । मद्य दो प्रकार का है - काष्ठनिष्पन्न और पिष्टनिष्पन्न । काष्ठ - निष्पन्न मद्य जैसे ईक्षु, ताड़ आदि से निष्पन्न तथा पिष्टनिष्पन्न जैसे चावल कोद्रव आदि से निष्पन्नदोनों विकृति हैं । अन्य प्रकार के मद्य विकृति नहीं हैं। तीनों प्रकार के मधु मक्षिकाकृत, कुत्तिकाकृत और भ्रमरकृत विगय हैं, दूसरे नहीं ।
तीनों प्रकार के मांस (जलचर, स्थलचर, खेचर प्राणियों) विगय हैं,