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आगमों में विनय
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प्रशस्त काय-विनय-यह भी सात प्रकार का है। उपरोक्त गमन आदि सात क्रियाओं में जब व्यक्ति आयुक्त होता है, अथवा संयमी व्यक्ति का गमन, तब उसे प्रशस्त-काय-विनय कहा जाता है। ७. लोकोपचार-विनय
यह सात प्रकार का है१. अभ्यासवर्तिता-आराध्य के समीप बैठना । २. पर छन्दानुवर्तिता-आराध्य के अभिप्रायानुसार वर्तन करना। ३. कार्यहेतुक-ज्ञानादि के निमित्त भक्त-पान आदि का दान देना।
४. कृतप्रतिकृति-विनय के प्रयोग में प्रसादित गुरु मुझे श्रुत सिखाएंगे-ऐसा सोचकर भक्तपान के दान का प्रयत्न करना।
५. आर्तगवेषणा-दुःखियों की वार्ता का अन्वेषण करना। ६. देशकालज्ञता-अवसरोचित कार्य करना ।
७. सर्वार्थों में अप्रतिलोमता-आराध्य के समस्त प्रयोजनों में अनुकूल रहना। उपर्युक्त भेद-प्रभेद औपपातिक सूत्र के अनुसार हैं।
शान्त्याचार्य ने विनय के पांच भेद किये हैं
१. लोकोपचार-विनय अभ्युत्थान, आसनदान, अतिथि-पूजा आदिआदि।
२. अर्थहेतुक-विनय अभ्यासवर्तिता, छन्दानुवर्तना, देशकाल दान, अभ्युत्थान आदि।
३. कामहेतुक-विनय। ४. भय-विनय। ५. मोक्ष-विनय। यह पांच प्रकार का है१. दर्शन-विनय। २. ज्ञान-विनय। ३. चारित्र-विनय। ४. तप-विनय।